"सबला / अभय मौर्य" के अवतरणों में अंतर
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11:22, 14 जनवरी 2011 के समय का अवतरण
कीकर की एक सहेली है,
पास खेत में काम करती है ।
हो चूर थकान से दोपहर में,
बैठ छाँव में साँस लेती है ।
कीकर को हो गया है लगाव उससे,
वह भी पाती है सुकून इस सहेली से ।
नहीं कोई और दुख-दर्द बाँटने को,
कीकर को ही साथिन समझ बैठी है ।
कभी-कभी लेते हुए अँगड़ाई
वह कुछ-कुछ बुद-बुदाती है।
शायद अपनी कहानी कहती है,
जो कीकर को झकझोर देती है ।
“उठती हूँ मैं तड़के-तड़के,
जब पंछी भी पंख नहीं फड़फड़ाता,
न कूकती कोयल, न थिरकते मोर,
नींद की गोद में होता है जग सारा ।
तब डालती हूँ मैं चक्की में दाने,
ले हाथ में हत्था पाट को घुमाती हूँ ।
पसीना-पसीना हो पीसती हूँ आटा,
पाते हैं सबल जिससे और बल ।
इंतजार कर रही होती है मेरा बिलोनी,
उससे निकलता है मक्खन और लस्सी ।
मक्खन से पति और बेटा होते हैं और सबल,
बेटी और मैं कर लेते हैं लस्सी से गुज़ारा ।
गाय-भैंसों को चराने ले जाता है ‘भूरा’ –
मेरा बेटा, पाळी बनकर ही सबल होता है ।
बेटी और मैं भरते हैं गोबर टोकरों में,
उससे बनाते हैं गोल-गोल गोस्से (उपले) ।
फिर रख सिर पर पानी का घड़ा,
उस पर टिका लस्सी का लोटा,
रोटियों पर रख पिसी मिर्च और गठा,
जाती हूं मैं दो कोस दूर खेत में ।
मेरा सबल पति थामकर हल,
आता है पास मेरे नाश्ते के लिए ।
मन किया तो खिला देता है मुझे भी
घूसे सबलता अपनी जताने के लिए ।
फिर मैं जुट जाती हूं काटने घास,
या हल के आगे साफ करने सूड़ (झाड़-झंखाड),
भरी दोपहर बेटी रोटियाँ लेकर आती है,
अब माँ-बेटी ईख को सबल बनाती हैं ।
ढलता है दिन, होता है पहर तीसरा,
रख कर सिर पर ज्वार के भरोटे,
लौटते हैं घर, काटते हैं उन्हें गंडासे से
गाय-भैंसों को सबल बनाने के लिए ।
फिर बाल्टी से कुएँ से खींच पानी
भरती है ढेर सारे घड़े, टोकणियाँ ।
सिर पर सजा कर एक के ऊपर एक
लाती है सबलों की प्यास बुझाने को ।
फिर हम पकाते हैं रोटियाँ,
अक्सर बापू-बेटा पहले खाते हैं ।
हमें मिल जाता है बचा-खुचा,
सबलों को देना है और अधिक बल ।
देर साँझ को पति अक्सर पीता है गट-गट
मुझे देता है खाने को घूंसे, पीने को आँसू।
टूटी-सी खटिया पर सिसकते-सिसकते
सो जाती हैं दो अबलाएँ – मां और बेटी ।
कट जाता है एक और दिन हमारा,
सबल भी भर लेते हैं दो-एक डग ।
कल फिर उठना है तड़के-तड़के,
सबलों को और बल देने के लिए ।