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"स्त्री की नींद / नीलेश रघुवंशी" के अवतरणों में अंतर
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एक छोटे से डाकख़ाने में
वो स्त्री अपनी सीट पर इतनी उदास इतनी अकेली
समय उसके आसपास नहीं होता ऊँघते और झपकियाँ लेते
एक ही ग़लती को दोहराती है बार-बार कंप्यूटर पर
काउंटर पर ठक-ठक की आवाज़
नींद और आलस से बाहर लाती है उसे
वह लिफ़ाफ़े की इबारत और भेजने वाले के
हाथों के कंपन से होती है कोसों दूर
नींद से भरी हुई इस स्त्री को देख
दफ़्तर के लोग पीटते हैं सिर कोसते हैं अपने बीच उसके होने को
घर और दफ़्तर के कभी न ख़त्म होने वाले कामों के बीच
स्त्री की नींद कसमसाती है
सोमवार, 14 जुलाई 2003, भोपाल