"जितनी देर में पृथ्वी / नील कमल" के अवतरणों में अंतर
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23:05, 19 जनवरी 2011 के समय का अवतरण
पलकों पर नींद की गठरी भारी
पीठ पर लादे कैसी दुनियादारी
साधो, इस्पात के पहिए-सा यह जीवन
समय जिसे खींचता है पटरी पर,
इस जीवन में नहीं
नवजातक की दूधिया मुसकान,
नहीं, अक्षत-रोली लिए
माँ की गीली चुटकी,
पिता के तृप्त होंठ
बुदबुदाते हुए आशीर्वचन
इस जीवन में
पहिए सरकते हैं, दिन निकलने के साथ
शाम ढलने के बाद कहीं
नसीब होता है प्लेटफ़ार्म,
जिसे घर कहते हैं
एक छोटे से विराम में ,
हर छूटती साँस के साथ
जीवन की छोटी से छोटी ख़ुशी
आती है नींद की क़ीमत पर
नींद इस जीवन व्यापार में
एक खोटा सिक्का है, जिसे
जेबों में लिये लोग , सिर्फ़
प्लेटफ़ार्म बदलते हैं
जब वे मिलते हैं, किसी दोस्त-रिश्तेदार से
दिनों बाद सफ़र में, "बेटा इतना बड़ा हो गया",
बताते हैं बाँहें फ़ैलाते हुए,
जितनी देर में पृथ्वी, लगाती है एक चक्कर
अपनी धुरी पर, उतनी देर में
उनकी बाँहें फैलती हैं और भी ज़ियादह,
सच कहूँ, ऐसा करते हुए
उनकी पलकें बहुत भारी होती हैं ।