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प्यार-पलाश
खिला
फूला है वन में,
नहीं ईंट-पत्थर के भव्य भवन में-
नहीं नवोढ़ा के कामातुर तन में-
नहीं प्रपंचक पूजक जन के मन में।
रूप-रंग अनुराग मिला है वन को,
हर्षित
मुनिवर पेड़ हुए,
मुसकाए;
पवन प्रमोदित
हुआ, प्रवाहित झूमा,
पंख पसारे
गाते पक्षी प्यारे।
रचनाकाल: ०१-०८-१९९१