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11:33, 22 जनवरी 2011 का अवतरण
कठिन वह एक डगर
और नमक पड़ा जले पर
इस तरह तय किया सफ़र
हमने पिता के जूतों में
इतिहास की धूल और
चुभते कई शूल, समय के,
चलते हुए साथ-साथ इस यात्रा में
आसान नहीं होतीं यात्राएँ
ऐसे जूतों में कि जिनके तलवों से
चिपके होते हैं अगणित अदृश्य पथ
और कील-कंकड़ कितने ही
आसान नहीं होता
पिता के जूतों में
अपनी राह बना लेना
पहुँचना किसी नई मंज़िल
उलटी राह चलते हैं पाँव
इन जूतों में और खो जाते हैं,
इतिहास के किसी खोह में
बच के आएगा,
इतिहास के इस खोह से, वही बच्चा,
जो उतार फेंकेगा पाँवों से, पिता के जूते
अपने लिए ढूँढ़ेगा, अपनी माप के जूते
चलेगा वह आगे की ओर
बनायेगा खुद अपनी राह
और तय करेगा मंज़िल
अपने जूतों में
बड़े काम की होती है
पिता की वह चिट्ठी
आगाह करती हुई कि बेटा,
मत डालना पाँव मेरे जूतों में
ढूँढ़ना अपने नम्बर वाला जूता
बनाना अपनी राह ख़ुद ही,
बहुत बड़ी है पृथ्वी
दस दिशाएँ पृथ्वी पर
और दस नम्बर जूतों के !