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"नंदिनि-2 / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल" के अवतरणों में अंतर

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23:06, 23 जनवरी 2011 के समय का अवतरण

मुझे प्रेम की अमर पुरी में अब रहने दो !
अपना सब कुछ देकर कुछ आँसू लेने दो !
प्रेम की पुरी, जहाँ रुदन में अमृत झरता,
जहाँ सुधा का स्रोत उपेक्षित सिसकी भरता !
जहाँ देवता रहते लालायित मरने को,
मुझे प्रेम की अमर पुरी में अब रहने दो !

मधुर स्वरों में मुझे नाम प्रिय का जपने दो !
मधु ऋतु की ज्वाला में जी भर कर तपने दो !
मुझे डूबने दो यमुना में प्रिय नयनों की !
मुझको बहने दो गंगा में प्रिय वचनों की !
मुझे रूप के कुंजों में जी भर फिरने दो !
मधुर स्वरों में मुझे नाम प्रिय का जपने दो !

अलकें बिखराए, आँसू में नयन डुबोए !
पृथ्वी की, अपने तन-मन की याद भुलाए !
मैं गाऊँगा विपुल पथों पर शून्य वनों में,
नदियों की लहरों में, कुंजों की पवनों में,
दुखी देवता-सा ऊपर को दृष्टि उठाए,
अलकें बिखराए, आँसू में नयन डुबोए !

कहाँ मिलेगी मर कर इतनी सुन्दर काया !
जिस पर विधि ने है जग का सौंदर्य लुटाया !
हरे खेत ये, बहती विजन वनों की नदियाँ,
पुष्पों में फिरती भिखारिनी ये मधुकरियाँ !
कहाँ मिलेगी मर कर इतनी शीतल काया ?
कहाँ मिलेगी मर कर इतनी सुंदर काया ?

मेरे उर से उमड़ रही गीतों की धारा !
बनकर ज्ञान बिखरता है यह जीवन सारा !
किंतु कहाँ वह प्रिय मुख जिसके आगे जाकर,
मैं रोऊँ अपना दुख चटक-सा मंडराकर,
किसके प्राण भरूँ मैं इन गीतों के द्वारा
मेरे उर से उमड़ रही गीतों की धारा !

मेरे काँटें मिल न सकेंगे क्या कुसुमों से ?
मेरी आहें मिल न सकेंगी हरित द्रुमों से ?
मिल न सकेगा क्या शुचि दीपों से तम मेरा ?
मेरी रजनी का ही होगा क्या न सवेरा ?
मिथ्या होंगे स्वप्न सभी क्या इन नयनों के ?
मेरे काँटें मिल न सकेंगे क्या कुसुमों से ?

नदी चली जाएगी यह न कभी ठहरेगी !
उड़ जाएगी शोभा, रोके ये न रुकेगी !
झर जाएँगे फूल, हरे पल्लव जीवन के,
पट जाएँगे पीट एक दिन शीत मरण से !
रो-रोकर भी फिर न हरी यह शोभा होगी
नदी चली जाएगी यह न कभी ठहरेगी !

मेरी बाहें सरिताओं-सी आकुल होकर,
दिशा-दिशा में खोज रही हैं वह प्रिय सागर,
जिसे हृदय पर धरकर मिलती शांति चिरंतन,
जिस की छवि में खो जाता युग-युग का जीवन,
जिसे देख कर कुछ न दिखता फिर पृथ्वी पर
मेरी बाँहें खोज रही हैं वह प्रिय सागर !

मेरे पथ में हँसी किसी की फूल बिछाती,
याद किसी की मुझको शुचि करने को आती,
उठता जब तूफ़ान गगन में मेघ गरज़ते
अंधकार के चिह्न न पथ पे मुझको मिलते,
मूर्त्ति किसी की तब हँस-हँसकर आगे आती,
मेरे पथ में हँसी किसी की फूल बिछाती !

तुम प्रकाश हो ! मुझमें दुख का तिमिर भरा है,
तुम मधु की शोभा हो ! मुझ में कुछ न हरा है,
तुम आशा की वाणी ! मैं निराश जीवन हूँ,
तुम हो छटा हँसी की ! मैं नीरव रुदन हूँ,
तुम सुख हो ! मेरे दुख का सागर गहरा है,
मुझे मिलो हे, तुम में मधुर प्रकाश भरा है !

मैं चुपचाप सुना करता हूँ, ध्वनि आशा की !
पीता हूँ शोभा अपनी ही अभिलाषा की !
देखा करता हूँ चुपचाप तटों पर आतीं,
उन लहरों को, जो सहसा हँस कर फिर आतीं,
मुझे चाह है सजल प्रेम की, मृदु भाषा की !
मैं चुपचाप सुना करता हूँ, ध्वनि आशा की !

नाम तुम्हारा ले-लेकर आहें भरता हूँ,
मैं पृथ्वी पर सजल नयन लेकर फिरता हूँ,
खोया-सा बैठा रहता नदियों के तट पर,
सुनता लहरों के स्वर, तरु विपिनों के मर्मर,
राहों में पथिकों के दल देखा करता हूँ,
नाम तुम्हारा ले-लेकर आहें भरता हूँ !

यौवन के पथ पर जाकर ऐसे ही मन को-
लुटा और आँखों में लेकर के रोदन को,
जो सुख होता धोखा खा कर पछताने में,
जो सुख होता फिर-फिर कर धोखा खाने में,
अमर वही सुख तो करता नश्वर जीवन को,
यौवन के पथ पर जाकर ऐसे ही मन को !

प्रेम देव हे ! हे बसंत के कोमल सहचर !
सुधा पिलाने वाले हे देवता मनोहर !
किया न तुमने जिसको पीड़ित निज बाणों से,
व्यर्थ हुआ उसका जीवन ही इस पृथ्वी पर,
सुधा पिलाने वाले हे देवता मनोहर !
प्रेम देव हे ! हे बसंत के कोमल सहचर !