"भारतीय ग्रीष्म / बरीस पास्तेरनाक" के अवतरणों में अंतर
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21:54, 24 जनवरी 2011 का अवतरण
काली झरबेरी के पात, अमसृण-से लगते हैं, कैनवास की तरह ।
घर के अंदर अट्टहास है और काँच के बरतनों की आवाज़ । लोग
चकत्ते काट रहे हैं, अचार बन रहा है और मिर्च डाली जा रही है
मर्तबानों में मसाला मिला कर ।
जंगल जैसे चिढ़ा हुआ हो
वह इस सब शोरगुल को बिखेर देता है
खड़ी दालान के नीचे जहाँ सूरज
झाड़ियों को आलोकित करता है अलाव की आग की तरह ।
यहाँ से पगडंडी नीचे चली जाती है घाटी में
और तुम दुखी महसूस करोगे
धराशाई वृक्षों के लिए और शिशिर के लिए
जो पुराने फटे-चिटे चिथड़ों और हड्डियों के सौदागर की तरह
सब कुछ बुहार कर दे आता है खंदक में ।
दुख है कि दुनिया उससे ज़्यादा सीधी है
जितना कि कुछ चालाक लोग सोचते हैं ।
दुख है इन उजड़ी झाड़ियों के लिए
दुख है कि हर चीज़ का अंत है ।
दुख है कि टकटकी लगाकर देखने का कोई अर्थ नहीं है
जबकि तुम्हारी आँखों के सामने हर वस्तु दग्ध हो जाती है
और शिशिर के श्वेत क्षार उधियाते हैं
खिड़की से होकर मकड़ी के जाले की तरह ।
उद्यान की सीमा को तोड़कर एक राह निकल आई है
जो खो जाती है जाकर भोजवृक्षों के वन में ।
हँसी और शोरगुल है घर के भीतर
और वही हँसी और शोरगुल है दूर-दूर तक ।
अँग्रेज़ी भाषा से अनुवाद : अनुरंजन प्रसाद सिंह