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13:56, 26 जनवरी 2011 के समय का अवतरण
एक काँपती हुई आवाज़
जलने से पहले जैसे दीये की लौ थरथराती है
रौशनी का एक वृक्ष छिपाए हुए
धीरे से कह गई अपने प्रेम को
पीड़ा से पीड़ा के बीच की इस यात्रा में
न जाने कहाँ थी सुख की वह सराय
अन्तहीन रेगिस्तान में
न जाने कहाँ थी वह छाँव
जिसके लिए निकल ही पड़ी थी वह एकदम
यह सबसे सुन्दर शब्द था
सबसे कठिन अभिव्यक्ति
और यह आवाज़ काँप रही थी
इन दिनों भी ।