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"कैफ़ियत / बरीस पास्तेरनाक" के अवतरणों में अंतर

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21:41, 28 जनवरी 2011 के समय का अवतरण

ज़िंदगी लौट आई है उसी तरह महज मामूली वज़ह के साथ
जिस तरह किसी समय अचानक विच्छिन्न हो गई थी वह ।
मैं उसी पुरानी 'फ़ैशन' वाली सड़क पर हूँ
जैसाकि तब, उस गर्मी के दिन में किसी अमुक मुहूर्त्त में होता था।

वही लोग, वही परेशानियाँ ।
सूर्य की अस्ताग्नि अभी शीतल नहीं हुई थी
क्योंकि मृत्यु की उस संध्या ने मानो
घबरा कर युद्धरत 'मिनेगस्कॉयर' की प्राचीर पर
अस्ताग्नि को पसार कर उस पर कील ठोंक दी हो ।
सस्ते, धारीवाले सूती कपड़ों में औरतें
अभी भी रात में अपने जूते घिसती रहती हैं
और लौह छत की सबसे ऊपर वाली मंज़िल में
अनाचार की शिकार होती रहती हैं ।

किन्तु यहाँ है कोई एक जो थका हुआ क़दम बढ़ाकर
दहलीज़ पर बाहर आता है ऊपर
निचली मंज़िल से आहिस्ते से सीढ़ी चढ़कर
और आँगन पार करता है ।

मैं फिर बार-बार मुआफ़ी माँगता हूँ
और मैं फिर उदासीन हूँ हर चीज़ की तरफ़ ।
एक बार फिर पड़ोस के घर से औरतें चली जाती हैं
अपने चहेतों के पास हमलोगों को अकेले छोड़कर ।

चीख़ो मत । अपने फेनित अधरों को सिकोड़ो मत ।
उन्हें चबा कर उन्हें तर मत करो;
क्योंकि वसंतकालीन ताप से निर्मित
उनकी शुष्कता फट जाएगी ।

मेरी छाती पर से हटालो अपने हाथ ।
हम हैं प्रवर शक्ति वाले विद्युत तार ।
सावधान रहो नहीं तो बेख़बरी में
हम लोग फिर एक साथ विक्षिप्त हो जाएँगे ।

साल पर साल गुज़रता चला जाएगा और तुम शादी करोगे
तुम भूल जाओगे अपना अस्थिर जीवन-क्रम ।
नारी होना एक बहुत बड़ी घटना है
औरों को पागल बना देना वीर नायकत्व है ।

जहाँ तक मेरा संबंध है ।
मुझे श्रद्धा एवं जीवन-व्यापी भक्ति है एक भृत्य की,
नारी के युगल कर के प्रति,
पृष्ठ भाग, स्कंध और ग्रीवा की अलौकिक गरिमा के प्रति ।

तथापि गूँथ कर अनेक मालाएँ पीड़ा की
मेरे गले बीच डाल जाती है रात ।
प्रबलतर है विपरीत आकर्षण,
मानो टूट कर बिखर जाएगी आसक्ति ।