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"जादू / लीलाधर जगूड़ी" के अवतरणों में अंतर
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दृश्यों की भी एक शाब्दिक आहट होती है
जिसे कान पहचान लेते हैं
बे-ज़ुबान कान भी चख लेते हैं ध्वनियाँ
घने दृश्यों के जंगल से गुज़रती
न दिखती हवा को भी
देख लेती है हमारी त्वचा
जो कई बार की छुई हुई दुनिया के लिए
छिपाकर रखती है
हर बार पहली बार छूने का जादू