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मैं आया ही था कि जाना आ गया
धुआँती सुबह की तरह मैं
अस्तित्व के बरामदे में प्रवेश करता था
कि साँझ की तरह मैं ही वहाँ रिक्त
लेटा पड़ा हुआ मिल जाता था
किसी जन्म का कुछ पता नहीं चलता था
व्याकुल मैं उसे कवच-सा ढूँढ़ता था
कि मृत्यु अपने रथ पर आरूढ़
सामने मुस्कुराती खड़ी मिल जाती थी
जो नहीं होता था
उसका उलट पहले हो जाता था !
