भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"एकलव्य से संवाद-4 / अनुज लुगुन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनुज लुगुन |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem> हाँ, एकलव्य ! ऐसा …)
 
(कोई अंतर नहीं)

10:55, 10 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण

हाँ, एकलव्य !
ऐसा ही हुनर था ।

ऐसा ही हुनर था
जैसे तुम तीर चलाते रहे होगे
द्रोण को अपना अँगूठा दान करने के बाद
दो अँगुलियों
तर्जनी और मध्यमिका के बीच
कमान में तीर फँसाकर ।

एकलव्य मैं तुम्हें नहीं जानता
तुम कौन हो
न मैं जानता हूँ तुम्हारा कुर्सीनामा<ref>वंशावली</ref>
और न ही तुम्हारा नाम अंकित है
मेरे गाँव की पत्थल गड़ी<ref>मुण्डा लोग अपने पूर्वजों के नाम पत्थर पर खोदते हैं</ref> पर
जिससे होकर मैं
अपने परदादा तक पहुँच जाता हूँ ।

लेकिन एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है।

मैंने तुम्हें देखा है
अपने परदादा और दादा की तीरंदाज़ी में
भाई और पिता की तीरंदाज़ी में
अपनी माँ और बहनों की तीरंदाज़ी में
हाँ एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
वहाँ से आगे
जहाँ महाभारत में तुम्हारी कथा समाप्त होती है

शब्दार्थ
<references/>