"सजदा / मख़दूम मोहिउद्दीन" के अवतरणों में अंतर
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19:15, 14 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
फिर उसी शोख का ख़याल आया,
फिर नज़र में वो ख़ुशजमाल<ref>सौन्दर्य</ref> आया
फिर तड़पने लगा दिले मुज़तर<ref>बेचैन</ref>,
फिर बरसने लगा है दीद-ए-तर<ref>भीगी आँख</ref> ।
याद आईं वो चाँदनी रातें,
वो हँसीछेड़ दिल्लगी बातें ।
शब-ए-तारीक है ख़मूशी है,
कुल जहाँ महवे ऐश कोशी<ref>सारी दुनिया विलासिता के मज़े लूटने में व्यस्त है</ref> है ।
लुत्फ़ सजदों में आ रहा है मुझे,
छुप के कोई बुला रहा है मुझे ।
चूड़ियाँ बज रही हैं हाथों की,
आई आवाज़ उसकी बातों की ।
उड़ रहा है गुबारे नूरे बदन,
फैलती जा रही है बूए दहन<ref>मुख की गंध</ref> ।
मौज-ए-तस्नीम<ref>स्वर्ग की नहर</ref> व कैफ़े<ref>मज़ा</ref> ख़ुल्द-ए-बरीं<ref>स्वर्ग से मुक्त</ref>
जगमगाता बदन चमकती जबीं<ref>माथा</ref> ।
अपने आँचल में मुँह छिपाए हुए,
आ रहा है क़दम बढ़ाए हुए ।
नगमे पाजेब के सुनाते हुए
बख्ते ख़फ़ता<ref>सोया हुआ भाग्य</ref> मेरे जगाते हुए ।
इशवो नाज़<ref>हाव-भाव</ref> का फ़सूँ<ref>कहानियाँ</ref> लेकर,
साथ इक लशकरे जुनूँ<ref>उन्माद का लश्कर</ref> लेकर ।
दूर से मुस्कुराता आता है,
बिजलियाँ-सी गिराता आता है ।
वो के रंगी किरण तबस्सुम<ref>मुस्कान</ref> की,
इक मुसलसिल लड़ी तरन्नुम<ref>संगीत</ref> की ।
परदा-ए-तन में राग पोशीदा<ref>छिपा हुआ</ref>,
राग वो जिसमें आग पोशीदा ।
बाँसुरी-सी बजाए जाता है,
आग तन में लगाए जाता है ।
एक दुनिया-ए रंगो बू बनकर,
खूँशुदा दिल खी आरजू बनकर ।
नई दुल्हन की थरथरी बनकर,
उसके होंटों की कँपकँपी बनकर ।
मेरे दिल में समा गया कोई,
मेरी हस्ती पे छा गया कोई ।