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शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
लयता, गेयता और समसामयिकता के प्रबल सम्वाहक
आलेखः-अशोक कुमार शुक्ला
साहित्य समाज का ऐसा दर्पण है जिसमें समाज के चेहरे पर आई छोटी से छोटी खरोंच तो प्रतिबिंबित होती ही है वरन् उसके आन्तरिक अंगों पर जाने-अनजाने आई चोटें भी मुखाकृति के भावों के माध्यम से प्रदर्शित होती है। अपने समय के सभी साहित्यकारों ने अपनी अपनी विधाओं के माध्यम से समाज के दर्द, उसकी चिंता और उसके आँसुओं को स्वर दिया है। कविता भी भावनाओं के संप्रेषण का एक ऐसा ही माध्यम है जिसमें गहन संवेदना से जुड़ी प्रमुख विधा गीत है।
आज के नवगीतकारें में स्व0 नीलम श्रीवास्तव, उमाकान्त मालवीय, रामसेन्गर, कुमार रवीन्द्र, शिवबहादुर सिंह आदि नामों के मध्य प्रमुखता से स्थापित नाम है शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान। नवगीत भाषा और शिल्प की दृष्टि से पारम्परिक गीत-धारा से नितान्त भिन्न होने के साथ-साथ नयी कविता के कथ्य और शिल्प से भी अलग है। नवगीत का शिल्प विधान ही उसकी विशेषता है जो उसे कविता की अन्य विधाओं से कुछ अलग हटकर स्थापित करती है।
श्री शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान का जन्म जनपद लखनऊ के दादूपुर ग्राम में कवि स्व0 श्री ब्रहृमा सिंह के घर 15 जुलाई 1955 को हुआ। पिता की साहित्यिक अभिरूचियों का प्रभाव स्वाभाविक रूप से सन्तानों पर पडा। इनके अनुज श्री उमेश कुमार सिंह चौहान तथा श्री ज्ञानेन्द्र जी भी साहित्यिक क्षेत्रों के प्रतिष्ठित नाम है। कविता में भाव-प्रधान तथा चिन्तन-प्रधान दोनो तरह की कविताओं का वे पृथक-पृथक महत्व रेखांकित करते हैं। वे छन्दबद्ध तथा छन्दमुक्त विधा में अच्छी कविता को महत्व देते हैं। परन्तु उनका मानना है कि लय का सीधा सम्बन्ध मनुष्य की चेतना से होता है, जिससे छन्दबद्ध कविता की गीतात्मकता का अंश मनुष्य को और गहराई तक स्पर्श करता है।
अपने छात्र जीवन से ही लिखना प्रारंभ करते हुए राजकीय सेवा में आगमन के उपरांत वे प्रशासनिक दायित्यों के साथ-साथ अपनी रचनात्मकता को भी सँवारते और सहेजते रहे। इनकी अनेक रचनाएँ साहित्य भारती, नवनीत, अतएव, सार्थक, ‘बालवाणी’, ‘राष्ट्रधर्म’, ‘अपरिहार्य’ प्रेसमैन, समयान्तर, ग्रामीण अंचल, रैनबसेरा, ‘संकल्प रथ’ ‘शब्द’ ‘नये पुराने’ ‘सार्थक’ ‘ज्ञान-विज्ञान’ ‘तरकश’ ‘अवध अर्चना’ ‘अंचल भारती’ ‘उत्तरायण’ ‘स्वतंत्र भारत’ आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सैकड़ों बार स्फुट रूप से प्रकाशित होती रहीं। कई वर्षों तक स्फुट प्रकाशित होने के बाद 1997 में इनका पहला गीत-संग्रह ‘टूटते तिलिस्म’ प्रकाशित हुआ, जिसमे एक कुशल शिल्पी की भाँति उन्होंने प्रशासनिक सेवा की विवशताओं के साथ अपने अंतरमन की कशमकश को कविता के दर्द के रूप में इस प्रकार उकेरा है :-
दर्द है पर किस तरह से चीख़ निकले,
होंठ पर लटका हुआ बेजान ताला ।
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बिल्लियों ने रोज़ काटा रास्ते को,
बंदिशों ने कामना को रौद डाला ।
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चील गिद्धों ने हवा मे गंध पाकर
ले लिए छत बीच अपने हैं बसेरे ।
इनकी अधिकतर रचनाएँ 13 सें अधिक सहसंकलनों में प्रकाशित हुई है, जिनमें से ‘गीत-गुंजन’ (संपादक राजेन्द्र वर्मा), ‘नवगीत एवं उसका युगबेाध’ (संपादक राधेश्याम बंधु), ‘बीसवीं सदी के श्रेष्ठ गीत’ (संपादक मधुकर गौड), ‘श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन’ (संपादक कन्हैयालाल नंदन), ‘राष्ट्रीय काव्यांजलि’ (संपादक डॉ० किशोरी शरण शर्मा), ‘सप्तपदी’ (संपादक निर्मल शुक्ल) आदि प्रमुख हैं।
इन्होंने ‘उन्नाव की काव्य साधना’(संदर्भ ग्रंथ), तथा ‘आराधना के स्वर’ नामक संग्रह तथा ‘डलमऊ दर्शन पत्रिका’ का संपादन भी किया है।
वर्ष 2002 में प्रकाशित अपने दूसरे नवगीत-संग्रह ‘तपती रेती प्यासे शंख’ के प्रकाशन के बाद शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान देश के महत्वपूर्ण नवगीतकारों की श्रेणी में शामिल किए जाने लगे।
चमडी बेची दमड़ी पाई
बस इतनी ही हुई कमाई ।
पेट पीठ मिल एक हुए पर
चेहरे पर मुस्कान न आई ।
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नाम बड़े पर दर्शन थोड़े, रेस लगाते लंगड़े घोड़े ।
दुखी पीठ कर दर्द न जाने, मरी खाल के बहरे कोड़े ।
जिनके पाँव न फटी बिवाई , वो क्या जाने पीर पराई ।
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पीपल बरगद ने आपस में, झगड़े रोज किए ।
तनातनी के इस मौसम में, कैसे नीम जिए ?
शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान के गीतों में लयात्मकता के साथ मुहावरों का सटीक प्रयोग मिलता है। वस्तुतः आधुनिक जीवन की विसंगतियों को सहजता के साथ इन्होंने अपने काव्य में व्यक्त किया है जिसके लिये इन्हें समय समय पर अनेक साहित्यिक सम्मान भी प्राप्त हुए हैं। रायबरेली रचनात्मक संघ, रायबरेली द्वारा 1999 में, उत्तरायण साहित्यिक संस्था लखनऊ द्वारा वर्ष 2000 में, गूँज-अनुगूँज तथा आचमन साहित्यिक संस्था उन्नाव द्वारा वर्ष 2001 तथा 2002 में इन्हें सम्मानित किया गया है।
राष्ट्रीय सम्मानों में राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान का पं0 महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान 2004, अखिल भारतीय मंचीय कवि पीठ का हरिवंशराय बच्चन सम्मान 2009 इन्हें प्राप्त हुआ है।
हाल ही के वर्ष 2009 में इनका तीसरा काव्य-संग्रह ‘उगे मणिद्वीप फिर’ उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, से प्रकाशित हुआ है इसमें वर्तमान सन्दर्भों से जुड़ी ऐसी प्रासंगिक रचनाएँ हैं जो सामाजिक परिवर्तन के ऐसे अनुत्तरित प्रश्नों को उठाती हैं जिनके बारे में आम पाठक हमेशा सोचता है।
बींधती हैं प्रश्न चिन्हों की निगाहें, इस तरह हम आचरण करने लगे ।
मंजिलों को पार करने के लिए हम, हर तरह का रास्ता चुनने लगे ।
स्वार्थ की जलती शिखा में नेह के, मोम से सम्बन्ध हैं गलने लगे ।
बेहिचक अब आस्तीनों में हमारी, द्वेष के विष सर्प हैं पलने लगे ।
संप्रति शीलेन्द्र जी उत्तर प्रदेश राज्य की प्रशासनिक सेवा के साथ-साथ सक्रिय रूप से साहित्य सृजन भी कर रहे हैं। उनका का संपर्क सूत्र हैः-
ग्राम- दादूपुर, बंथरा जनपद- लखनऊ,(उ०प्र०) भारत
चल-दूरभाष संख्या- 09415427488