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"कामना / विजेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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21:24, 16 फ़रवरी 2011 का अवतरण

मैंने हर ढलती साँझ के समय
सदा सूर्योदय की कामना की है
जब सब छोड़ कर चले गए
वृक्ष मेरे मित्र बने रहे
खुली हवा... निरभ्र अकाश में
साँस लेत रहा
निखरी धूप में
फूलों ने अंग खोले
वह सूर्य-बिन्दु भी मुझे दिखाओ... वह नखत-पंख
जब सबसे पहले
मेरे पूर्वजों ने सहसा, अचक
मिट्टी का हरा-स्याह ढेला फेंक कर
दमकता ताँबा पा लिया
मैं हिम, पाषाण, धातु युग के पुनर्जागरण काल से
गुज़र कर यहा~म तक आया हूँ
धातुओं को रूप बदलते पहली बर देखा
ओह... जैसे अग्नि की आत्मा चमक उठी हो
कितनी हैरत में हूँ
कहाँ देख पाऊँगा उन्हें
जो चकमक के ह्थौड़े से धातु को पीटकर
कुल्हाड़ों के फाल...
कुदालों...बर्छियों में बदल रहे थे
कैसे हरे-भरे वृक्ष जीवाश्म बने
कुछ नष्ट नहीं हुआ
रूप और सौन्दर्य बदले हैं
मुझे खदान में उतरते किसी ने देखा
उस समय तनी रस्सियाँ...दाँतेदार बल्लियाँ
मेरी दोस्त थीं
मृत्यु का सामना थ
नीचे गाढ़े अँधेरे में उम्मीद की तीख़ी कौंध
धुएँ की कड़वी घुटन
नन्हें से तेल के दिए की रोशनी में
अपनी साँसों का ध्रुपद सुना है
पोली चट्टानों के खिसकने से
खनिज जहाँ-के-तहाँ दफ़न हुए
हर बार दानव ने मेरी आत्मा का सौदा किया है
मुझे बँधुआ बना के रखा है
बहुत पुरानी खदानों में
खनिकों की गली ठठरियाँ
बड़े-बड़े खण्डों के नीचे मिली हैं
एक युग डायनासोरों का भी था
लद्धड़ सोच ने उन्हें
प्रकृति के महागर्त में बैठाया
जब चकमक के भण्डार चुके
मैंने हरे-स्याह पत्थर को आँच में तपाया
हर क्रिया में मेरा जन्मोत्सव था
नए क्षितिज, नए द्वार, नई उषा, नया भोर
आँखों ने रोशनी की ज़ुबान सीखी
मेरा हर क़दम आगे पड़ा
आज मैं जिन अदृश्य अणुओं को
बारीक औज़ारों से तोड़ने को बैठा हूँ
उसकी शुरूआत बहुत पहले
कर चुका हूँ
न आँच बुझी है
न हाथ हारा है ।