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"आत्‍मकथ्‍य / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर

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यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्‍यंग्‍य मलिन उपहास
 
यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्‍यंग्‍य मलिन उपहास
  
तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बता अपनी बीती।
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तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
  
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तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।
  
बाकी भाग आज रात तक प्रकाशित कर दिया जाएगा।
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किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले-
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अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।
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यह विडंबना

00:32, 14 जून 2007 का अवतरण

रचनाकार: जयशंकर प्रसाद


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मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह,

मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।

इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्‍य जीवज-इतिहास

यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्‍यंग्‍य मलिन उपहास

तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले-

अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।

यह विडंबना