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यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्यंग्य मलिन उपहास | यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्यंग्य मलिन उपहास | ||
− | तब भी कहते हो-कह डालूँ | + | तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती। |
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+ | अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले। | ||
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+ | यह विडंबना |
00:32, 14 जून 2007 का अवतरण
रचनाकार: जयशंकर प्रसाद
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मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवज-इतिहास
यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्यंग्य मलिन उपहास
तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।
किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले-
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।
यह विडंबना