भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ख़बरें / मनमोहन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनमोहन |संग्रह= }} <poem> अपनी गाँठें और जड़ें छोड़कर …)
 
(कोई अंतर नहीं)

20:37, 23 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण

अपनी गाँठें और
जड़ें छोड़कर
वे आती हैं
 
चौड़ी मेज़ों पर फैली हैं
चुनी और साफ़ की जा रही हैं
 
हड्डियाँ अलग की जा चुकी हैं
उनका ख़ून धोया जा रहा है
 
अपना रंग छोड़ चुकी हैं
गंध बदल चुकी है
वे स्वाद जगा रही हैं
 
वे अपना कोई पता नहीं बतातीं
सर नहीं दुखातीं
साँस नहीं रोकतीं
उतना खेल दिखाती हैं
जितने की ज़रूरत है
 
उन्हें कुछ नहीं कहना
वे एक कोने में रह लेंगी
घुलमिल जाएँगी
आपस में कट मरेंगी
 
बस थोड़ा खेल दिखाएँगी
और ख़ामोश हो जाएँगी।