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"सरे आम नीलाम जिंन्दगी/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
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ढूंढ रहे आकुल सन्नाटे | ढूंढ रहे आकुल सन्नाटे | ||
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17:33, 25 फ़रवरी 2011 का अवतरण
सरे आम नीलाम जिंन्दगी
गली गली में टंगे हुये हैं,
दहशत के पैगाम ।
ढूंढ रहे आकुल सन्नाटे,
लहरों में विश्राम।।
उगे हुये हैं राजपथों पर
झरवेरी कांटे।
मीठे मीठे दर्द हवा में
मौसम ने बांटे।।
सरे आम नीलाम जिन्दगी
सुख सुविधा के नाम।
गुनहगार माथे पर दिखता
लिखा राम का नाम।।
वृद्ध सदी बीमार डगर है,
पांव पडे छाले।
त्रस्त कुटी ने अपने मुंह पर,
डाल लिये ताले।।
सीढी सीढी धूप सुनहली
आंगन में उतरे।
कमरों कमरों में अंधियारे
फिर भी हैं पसरे।।
लोग लगाये बैठे अपने
हाथों अपने दाम।
ढूंढ रहे आकुल सन्नाटे
लहरों में विश्राम।।
गली गली में टंगे हुये हैं,
दहशत के पैगाम ।