"दुर्गम्या / प्रतिभा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
अनूप.भार्गव (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना }} <poem> </poem>) |
अनूप.भार्गव (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
}} | }} | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | कोई तोहमत जड़ दो औरत पर , | ||
+ | कौन है रोकनेवाला ! | ||
+ | कर दो चरित्र हत्या , | ||
+ | या धर दो कोई आरोप ! | ||
+ | हटा दो रास्ते से ! | ||
+ | * | ||
+ | हाँ ,वे दौड़ा रहे हैं सड़क पर | ||
+ | 'टोनही है यह ', | ||
+ | 'नज़र गड़ा चूस लेती है बच्चों का ख़ून!' | ||
+ | उछल-उछल कर पत्थर फेंकते , | ||
+ | चीख़ते ,पीछे भाग रहे हैं ! | ||
+ | खेल रहे हैं अपना खेल ! | ||
+ | * | ||
+ | अकेली औरत , | ||
+ | भागेगी कहाँ भीड़ से ! | ||
+ | चोटों से छलकता खून | ||
+ | प्यासे हैं लोग ! | ||
+ | सहने की सीमा पार , | ||
+ | जिजीविषा भभक उठी खा-खा कर वार ! | ||
+ | * | ||
+ | भागी नहीं ,चीखी नहीं ! | ||
+ | धिक्कार भरी दृष्टि डालती | ||
+ | सीधी खड़ी हो गई | ||
+ | मुख तमतमाया क्रोध-विकृत ! | ||
+ | आँखें जल उठीं दप्-दप् ! | ||
+ | लौट पड़ी वह ! | ||
+ | * | ||
+ | नीचे झुकी, उठा लिया वही पत्थर | ||
+ | आघात जिसका उछाल रहा था रक्त! | ||
+ | भरी आक्रोश | ||
+ | तान कर मारा पीछा करतों पर ! | ||
+ | 'हाय रे ,चीत्कार उठा , | ||
+ | मार डाला रे ! | ||
+ | भीड़ हतबुद्ध, भयभीत ! | ||
+ | * | ||
+ | और दूसरा पत्थर उठाये दौड़ी! | ||
+ | अब पीछा वह कर रही थी , | ||
+ | भाग रहे थे लोग ! | ||
+ | फिर फेंका उसने ,घुमा कर पूरे वेग से ! | ||
+ | फिर चीख उटी ! | ||
+ | उठाया एक और ! | ||
+ | * | ||
+ | भयभीत, भाग रही हैं भीड़ ! | ||
+ | कर रही है पीछा | ||
+ | अट्टहास करते हुये | ||
+ | प्रचंड चंडिका ! | ||
+ | * | ||
+ | धज्जियां कर डालीं थीं वस्त्रों की | ||
+ | उन लोगों ने , | ||
+ | नारी-तन बेग़ैरत करने को ! | ||
+ | सारी लज्जा दे मारी उन्हीं पर ! | ||
+ | पशुओं से क्या लाज ? | ||
+ | ये बातें अब बे-मानी थीं ! | ||
+ | * | ||
+ | दौड़ रही है ,निर्भय उनके पीछे ,हाथ में पत्थर लिये | ||
+ | जान लेकर भाग रहे हैं लोग ! | ||
+ | भीत ,त्रस्त , | ||
+ | सब के सब ,एक साथ गिरते-पड़ते , | ||
+ | अँधाधुंध इधर-उधर ! | ||
+ | तितर-बितर ! | ||
+ | थूक दिया उसने उन कायरों की पीठ पर ! | ||
+ | * | ||
+ | और | ||
+ | श्लथ ,वेदना - विकृत, | ||
+ | रक्त ओढ़े दिगंबरी , | ||
+ | बैठ गई वहीं धरती पर ! | ||
+ | पता नहीं कितनी देर ! | ||
+ | फिर उठी , चल दी एक ओर ! | ||
+ | * | ||
+ | अगले दिन खोज पड़ी | ||
+ | कहां गई चण्डी ? | ||
+ | कहाँ गायब हो गई? | ||
+ | पूछ रहे थे एक दूसरे से । | ||
+ | कहीं नहीं थी वह ! | ||
+ | * | ||
+ | उधऱ कुयें में उतरा आया मृत शरीर ! | ||
+ | दिगंबरा चण्डी को वहन कर सक जो | ||
+ | वहां कोई शिव नहीं था ! | ||
+ | सब शव थे ! | ||
</poem> | </poem> |
09:05, 28 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
कोई तोहमत जड़ दो औरत पर ,
कौन है रोकनेवाला !
कर दो चरित्र हत्या ,
या धर दो कोई आरोप !
हटा दो रास्ते से !
हाँ ,वे दौड़ा रहे हैं सड़क पर
'टोनही है यह ',
'नज़र गड़ा चूस लेती है बच्चों का ख़ून!'
उछल-उछल कर पत्थर फेंकते ,
चीख़ते ,पीछे भाग रहे हैं !
खेल रहे हैं अपना खेल !
अकेली औरत ,
भागेगी कहाँ भीड़ से !
चोटों से छलकता खून
प्यासे हैं लोग !
सहने की सीमा पार ,
जिजीविषा भभक उठी खा-खा कर वार !
भागी नहीं ,चीखी नहीं !
धिक्कार भरी दृष्टि डालती
सीधी खड़ी हो गई
मुख तमतमाया क्रोध-विकृत !
आँखें जल उठीं दप्-दप् !
लौट पड़ी वह !
नीचे झुकी, उठा लिया वही पत्थर
आघात जिसका उछाल रहा था रक्त!
भरी आक्रोश
तान कर मारा पीछा करतों पर !
'हाय रे ,चीत्कार उठा ,
मार डाला रे !
भीड़ हतबुद्ध, भयभीत !
और दूसरा पत्थर उठाये दौड़ी!
अब पीछा वह कर रही थी ,
भाग रहे थे लोग !
फिर फेंका उसने ,घुमा कर पूरे वेग से !
फिर चीख उटी !
उठाया एक और !
भयभीत, भाग रही हैं भीड़ !
कर रही है पीछा
अट्टहास करते हुये
प्रचंड चंडिका !
धज्जियां कर डालीं थीं वस्त्रों की
उन लोगों ने ,
नारी-तन बेग़ैरत करने को !
सारी लज्जा दे मारी उन्हीं पर !
पशुओं से क्या लाज ?
ये बातें अब बे-मानी थीं !
दौड़ रही है ,निर्भय उनके पीछे ,हाथ में पत्थर लिये
जान लेकर भाग रहे हैं लोग !
भीत ,त्रस्त ,
सब के सब ,एक साथ गिरते-पड़ते ,
अँधाधुंध इधर-उधर !
तितर-बितर !
थूक दिया उसने उन कायरों की पीठ पर !
और
श्लथ ,वेदना - विकृत,
रक्त ओढ़े दिगंबरी ,
बैठ गई वहीं धरती पर !
पता नहीं कितनी देर !
फिर उठी , चल दी एक ओर !
अगले दिन खोज पड़ी
कहां गई चण्डी ?
कहाँ गायब हो गई?
पूछ रहे थे एक दूसरे से ।
कहीं नहीं थी वह !
उधऱ कुयें में उतरा आया मृत शरीर !
दिगंबरा चण्डी को वहन कर सक जो
वहां कोई शिव नहीं था !
सब शव थे !