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"खेत में पानी भरो/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
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मेड़ का संयम कभी टूटे नहीं। | मेड़ का संयम कभी टूटे नहीं। |
13:38, 1 मार्च 2011 का अवतरण
खेत में पानी भरो
खेत में पानी भरों तुम इस तरह से,
मेड़ का संयम कभी टूटे नहीं।
यक्ष प्रश्नों से घिरी यह जिंन्दगी है
हर कदम पर जाल हैं फैले हुये,
डगमगाती नाव जैसा सन्तुलन ले
चल रही कल के सवालों को लिये
खोल दो तुम उलझनों की पर्त ऐसे,
प््रोम का बन्धन कभी टूटे नहीं।
उठ रहे परिवर्तनों के प्रश्न ऐसे
बादलों के झुन्ड जैसे उठ रहे,
हैं छिपाये ध्वंस के अवशेष मन में
कुछ कहे, पर रह गये कुछ अनकहे,
अनदिखे पथ, पग धरो तुम आज ऐसे
नेह की गागर कभी फूटे नहीं।
हो रहा है लोभ का संचरण इतना
श्वेत किरणें आज मैली हो गयीं
पुत गये हेमाभ चेहरे कालिखेंा से,
चदरें भी रंग खेा मैली हुयी,,
नित करो तुम आचरण का वरण ऐसा,
अब किसी की जिन्दगी लूटे नहीं।