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इस नगर से | इस नगर से |
20:37, 8 मार्च 2011 के समय का अवतरण
इस नगर से
आ गए हम तंग।
भीड़ का
पीकर ज़हर हँसते रहो
रोज़ उजड़ो
और फिर बसते रहो
किस तरह के
ये नियम, ये ढंग
इस नगर से
आ गए हम तंग।
थी बहुत
अपनी नदी मीठा कुआँ
खो गए सब
बच रहा काला धुआँ
लग गई है
ज़िंदगी में जंग
इस नगर से
आ गए हम तंग।