"भरभराकर ढह गया है / गणेश पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 19: | पंक्ति 19: | ||
छोड़ना चाहता है मुझे | छोड़ना चाहता है मुझे | ||
दुर्दिन की यह कैसी बरसात है | दुर्दिन की यह कैसी बरसात है | ||
− | कि चू रहा है जगह -जगह | + | कि चू रहा है जगह-जगह |
देह का घर | देह का घर | ||
23:36, 10 मार्च 2011 के समय का अवतरण
ढलान पर चलते हुए
सोचता हूँ कि यह कैसी तेज़ी है
भागते हैं पैर आप से आप
कहाँ पहुँचकर चाहते हैं
सुस्ताना
धरती के किस भाग पर
होना चाहते हैं मुझसे अलग
और मेरी बाँहें भी पैरों के संग-संग
किससे मिलने की जल्दी में हैं
मेरी देह का हर हिस्सा
छोड़ना चाहता है मुझे
दुर्दिन की यह कैसी बरसात है
कि चू रहा है जगह-जगह
देह का घर
ज़रा-सी बरसात में
भरभरा कर
ढह गया है दिल का कमरा
आँखों के बरामदे में
अब कैसे बीतता है
खाली-खाली दिन
और काली-काली रातें
किसे सुनाऊँ --
जीवन की कमजोर पटकथा
किस रचयिता से कहूँ --
मुझ ग़रीब की कथा में ला दे
कोई मोड़
ढलान पर बिछा दे हरियाली
थके हुए पैरों को मिला दे
कल-कल करते झरने से
आँखों में भर दे जीवन का रंग
और धरती का असीम आकाश
आतुर कानों के पास कर दे
किसी की पुकार
एक साधारण हृदय को बना दे
प्रेम का असाधारण सभागार
मेरी कविता को कर दे
फिर से जीवित
और इस कवि को बना दे
नवजीवन का कवि ।