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"परिणीता (कविता) / गणेश पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर

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11:11, 11 मार्च 2011 का अवतरण

यह तुम थी !
पके जिसके
काले लंबे बाल
असमय
हुए
गोरे चिकने गाल
अकोमल
यह तुम थी !

छपी
जिसके माथे पर
अनचाही इबारत
टूटा जिसका
कोई क़ीमती खिलौना

एक रेत का महल था
जिसका
एक पल में
पानी में था
कितनी हलचल थी
कितनी पीड़ा थी
भीतर

एक आहत सिंहनी
कितनी उदास थी
यह तुम थी !

ढ़ल गया था
चाँद जिसका
और चांद से भी
दूर
हो गया
प्यार जिसका
यह तुम थी !

श्रीहीन हो गया
जिसका मुख
खो गया था
जिसका सुख
यह तुम थी !

यह तुम थी
एक-एक दिन
अपने से लड़ती-झगड़ती
ख़ुद से करती जिरह
यह तुम थी !

औरत और मर्द
दोनों का काम करती
और रह-रह कर
किसी को याद करती
यह तुम थी !

कभी
गुलमोहर का सुर्ख़ फूल
और कभी
नीम की उदास पीली पत्ती
यह तुम थी !

अलीनगर की भीड़ में
अपनी बेटी के साथ
अकेली
कुछ ख़रीदने निकली थी
यह तुम थी !

यह मैं था
साथ नहीं था
आसपास था
मैं भी अकेला था
तुम भी अकेली थी
मुझसे बेख़बर
यह तुम थी !

बहुमूल्य
चमचमाती
और भागती हुई
कार के पैरों के नीचे
एक मरियल काले पिल्ले-सा
मर रहा था किसी का प्यार
और
तुम बेख़बर थी
यह तुम थी !

जिसकी क़िताब में
लग गया था
वक़्त का दीमक
कुतर गए थे कुछ शब्द
कुछ नाम
कुछ अनुभव
एक छोटी-सी
दुनिया अब नहीं थी
जिसकी दुनिया में
यह तुम थी !

जो अपनी क़िताब में
थी और नहीं थी
जो अपने भीतर थी
और नहीं थी
घर में थी
और नहीं थी
यह तुम थी !

बदल गई थी
जिसके घर और देह की दुनिया
जुबान और आँख की भाषा
बदल गया था
जिसके चश्मे का नंबर
और मकान का पता
यह तुम थी !

जिसकी आलीशान इमारत
ढह चुकी थी
मलबे में गुम हो चुकी थी
जिसकी अँगूठी
और हार
छिप गया था किसी हार में
यह तुम थी !

जीवन के आधे रास्ते में
बेहद थकी हुई
झुकी हुई
देखती हुई अपनी परछाईं
समय के दर्पण में
जो इससे पहले
कभी
इतनी कमज़ोर न थी
इतनी उदास न थी
यह तुम थी
किसी की परिणीता !

और
यह !
तुम थी !!
मेरी तुम !!!
जो अहर्निष
मेरे पास थी
जिसकी त्वचा
मेरी त्वचा की सखी थी

जिसकी साँसों का
मेरी सांसों के संग
आना-जाना था
मेरे बिस्तर का
आधा हिस्सा जिसका था
और जिसका दर्द
मेरे दर्द का पड़ोसी था

जिसके पैर बँधे थे
मेरे पैरों से
जिसके बाल
कुछ ही कम सफेद थे
मेरे बालों से
जिसके माथे की सिलवटें
कम नहीं थीं मेरे माथे से
जिससे
मुझे उस तरह प्रेम न था
जैसा कोई-कोई प्रेमी
और प्रेमिका
किताबों में करते थे

पर अप्रेम न था
कुछ था जरूर
पर शब्द न थे
जो भी था
एक अनुभव था

एक स्त्री थी
जो
दिन-रात खटती थी
सूर्य देवता से पहले
चलना शुरू करती थी
पवन देवता से पहले
दौड़ पड़ती थी
हाथ में झाड़ू लेकर

बच्चों के जागने से पहले
दूध का गिलास लेकर
खड़ी हो जाती थी
मुस्तैदी से

अख़बार से भी पहले
चाय की प्याली
रख जाती थी
मेरे होठों के पास

मीठे गन्ने से भी मीठी
यह तुम थी
मेरे घर की रसोई में
सुबह-शाम
सूखी लकड़ी जैसी जलती
और खाने की मेज पर
सिर झुकाकर
डाँट खाने के लिए
तैयार रहती
यह तुम थी !

बावर्ची
धोबी
दर्जी
पेंटर
टीचर
खजांची
राजगीर
मेहतर
सेविका
और दाई
क्या नहीं थी तुम !
यह तुम थी !

क्या हुआ
जो इस जन्म में
मेरी प्रेमिका नहीं थी
क्या पता
मेरे हज़ार जन्मों की प्रेयसी
तुम्हारे अंतस्तल में
छुपी बैठी हो
और तुम्हें ख़बर न हो

यह कैसी उलझन थी
मेरे भीतर कई युगों से
यह तुम थी
अपने को
मेरे और पास लाती थी
जब-जब मैं अपने को
तुमसे दूर करता था
यह तुम थी !
जो करती थी
मेरे गुनाहों की अनदेखी

मेरे खेतों में
अपने गीतों के संग
पोछीटा मार कर
रोपाई करती हुई
मज़दूरनी कौन थी!
अपनी हमजोलियों के साथ
हँसी-ठिठोली के बीच
बड़े मन से मेरे खेतों में
एक-एक खर-पतवार
ढूँढ-ढूँढ कर
निराई करती हुई
यह तन्वंगी कौन थी !

मेरे जीवन के भट्ठे पर
पिछले तीस साल से
ईंट पकाती हुई
झाँवाँ जैसी
यह स्त्री कौन थी
यह तुम थी !

और यह मैं था
एक अभिशप्त मेघ !
जिसके नीचे
न कोई धरती थी
न ऊपर कोई आकाश
और जिसके भीतर
पानी की जगह
प्यास ही प्यास

कभी
मैं ढू़ंढ़ता उस तुम को !
और कभी इस तुम को !

कभी
किसी की प्यास न बुझाई
न किसी के तप्त अंतस्तल को
सींचा
न किसी को कोई
उम्मीद बँधाई
यह मैं था

प्रेम का बंजर
इतनी बड़ी पृथ्वी का
एक मृत
और विदीर्ण टुकड़ा
अपनी विकलता
और विफलता के गुनाह में
डूबा
यह मैं था!

यह मेरे हज़ार गुनाह थे
और तुम
मेरे गुनाहों की देवी थी !
यह तुम थी!
जिससे
मेरी छोटी-सी दुनिया में
गौरैया की चोंच में
अँटने भर का
उसके पंख पर फैलने भर का
एक छोटा-सा जीवन था

एक छोटी-सी खिड़की थी
जहाँ मैं खड़ा था
सुप्रभात का एक छोटा-सा
दृश्यखंड था
यह तुम थी !

मेरी आँखों के सामने
मेरी तुम थी
यह तुम थी !

मेरे गुनाहों की देवी !
मुझे मेरे गुनाहों की सज़ा दो
चाहे अपनी करुणा में
सजा लो मुझे
अपनी लाल बिन्दी की तरह
अपने अँधेरे में भासमान

इस उजास का क्या करूँ
जो तुमसे है
इस उम्मीद का क्या करूँ

आत्मा की आवाज़ का क्या करूँ
अतीत का क्या करूँ
अपने आज का क्या करूँ
तुम्हारा क्या करूँ
जो
मेरे जीवन की सखी थी
और सखी है

जिसके संग लिए सात फेरे
मेरे सात जन्म के फेरे हैं
जो
मेरी आत्मा की चिरसंगिनी थी
मेरा अंतिम ठौर है
यह तुम थी !

यह तुम हो !!
मेरी मीता
मेरी परिणीता ।