"विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 8" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=व…) |
|||
पंक्ति 13: | पंक्ति 13: | ||
'''पद 71 से 80 तक''' | '''पद 71 से 80 तक''' | ||
− | तुलसी प्रभु | + | (71) |
+ | |||
+ | ऐसेहू साहब की सेवा सों होत चोरू रे। | ||
+ | अपनी न बूझ, न कहै को राँडरोरू रे।। | ||
+ | मुनि-मन-अगम, सुगत माइ-बापु सों। | ||
+ | कृपासिंधु, सहज सखा, सनेही आपु सों।। | ||
+ | लोक-बेद-बिदित बड़ो न रघुनाथ सों । | ||
+ | सब दिन सब देस, सबहिकें साथ सों।। | ||
+ | स्वामी सरबग्य सों चलै न चोरी चारकी। | ||
+ | प्रीति पहिचानि यह रीति दरबारकी।। | ||
+ | काय न कलेस-लेस, लेत मान मनकी। | ||
+ | सुमिरे सकुचि रूचि जोगवत जनकी । | ||
+ | रीझे बस होत, खीजे देत निज धाम रे। | ||
+ | फलत सकल फल कामतरू नाम रे।। | ||
+ | बेंचे खोटो दाम न मिलै, न राखे काम रे। | ||
+ | सोऊ तुलसी निवाज्यो राजराम रे।। | ||
+ | |||
+ | (72) | ||
+ | |||
+ | म्ेारो भलो कियो राम आपनी भलाई। | ||
+ | हौं तो साईं-द्रोही पै सेवक-हित साईं।। | ||
+ | रामसों बडो है कौन, मोसों कौन छोटेा। | ||
+ | राम सेा खरो हैं कौन, मोसो कौन खोटो।। | ||
+ | लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं। | ||
+ | एतो बडो अपराध भौ न मन बावौं।। | ||
+ | पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यांे नीचो। | ||
+ | बोरत न बारि ताहि जानि आपु सींचो।। | ||
+ | |||
+ | (74) | ||
+ | |||
+ | जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव, | ||
+ | जागि त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे। | ||
+ | करि बिचार, तजि बिकार, भजु उदार रामचंद्र, | ||
+ | भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे।। | ||
+ | मोहमय कुहू-निशा बिसाल काल बिपुल सोयो, | ||
+ | खोयो से अनूप रूप सुपन जू परे। | ||
+ | अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश, | ||
+ | बासना, सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे।। | ||
+ | भागे मद-मान चोर जानि जातुधान, | ||
+ | काम-क्रेाध-लोभ-छोभ-निकर अपडरे। | ||
+ | देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप, | ||
+ | ताप त्रिबिधि प्रेम-आप दूर ही करे।। | ||
+ | श्रवन सुनि गँभीर, जागे अति धीर बीर, | ||
+ | बर बिराग-तोष सकल संत आदरे। | ||
+ | तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु, | ||
+ | भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे।। | ||
+ | |||
+ | (76) | ||
+ | |||
+ | खेाटेा खरो रावरो हौं, रावरी सौं, रावरेसों झूठ क्यों कहौंगो, | ||
+ | जानो सब ही के मनकी। | ||
+ | करम-बचन-हिये, कहौं न कपट किये, ऐसी हठ जैसी गाँठि, | ||
+ | पानी परे सनकी।। | ||
+ | दूसरो , भरोसो नहिं बासना उपासनाकी, बासव, बिरंचि, | ||
+ | सुर-नर-मुनिगनकी।। | ||
+ | स्वारथके साथी मेरे, हाथी स्वान लेवा देई, काहू तो न पीर, | ||
+ | रघुबीर!दीन जनकी।। | ||
+ | साँप-सभा साबर लबार भये देव दिब्य, दुसह साँसति कीजै, | ||
+ | आगे ही या तनकी। | ||
+ | साँचे परौं, पाऊँ पान, पंचमें पन प्रमान,तुलसी चातक आस | ||
+ | राम स्यामघन की।। | ||
+ | |||
+ | (78) | ||
+ | |||
+ | देव- | ||
+ | दीनको दयालु, दानि दूसरो न कोऊ। | ||
+ | जाहि दीनता कहैां हौं देखौं दीन सोऊ।। | ||
+ | सुर, नर, मुनि, असुर, नाग, साहिब तौ घनेरे। | ||
+ | पै तौ लौं जौ लौं रावरे न नेकु नयन फेरे।। | ||
+ | त्रिभुवन, तिहुँ काल बिदित, बेद बदति चारी। | ||
+ | आदि-अंत-मध्य राम! सहबी तिहारी।। | ||
+ | तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो। | ||
+ | सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो।। | ||
+ | पाहन-पसु बिटप- बिहँग अपने करि लीन्हे। | ||
+ | महाराज दसरथके! श्रंक राय कीन्हें।। | ||
+ | तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो। | ||
+ | बारक कहिये कृपालु! त्ुलसिदास मेरो।। | ||
</poem> | </poem> |
13:17, 11 मार्च 2011 का अवतरण
पद 71 से 80 तक
(71)
ऐसेहू साहब की सेवा सों होत चोरू रे।
अपनी न बूझ, न कहै को राँडरोरू रे।।
मुनि-मन-अगम, सुगत माइ-बापु सों।
कृपासिंधु, सहज सखा, सनेही आपु सों।।
लोक-बेद-बिदित बड़ो न रघुनाथ सों ।
सब दिन सब देस, सबहिकें साथ सों।।
स्वामी सरबग्य सों चलै न चोरी चारकी।
प्रीति पहिचानि यह रीति दरबारकी।।
काय न कलेस-लेस, लेत मान मनकी।
सुमिरे सकुचि रूचि जोगवत जनकी ।
रीझे बस होत, खीजे देत निज धाम रे।
फलत सकल फल कामतरू नाम रे।।
बेंचे खोटो दाम न मिलै, न राखे काम रे।
सोऊ तुलसी निवाज्यो राजराम रे।।
(72)
म्ेारो भलो कियो राम आपनी भलाई।
हौं तो साईं-द्रोही पै सेवक-हित साईं।।
रामसों बडो है कौन, मोसों कौन छोटेा।
राम सेा खरो हैं कौन, मोसो कौन खोटो।।
लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं।
एतो बडो अपराध भौ न मन बावौं।।
पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यांे नीचो।
बोरत न बारि ताहि जानि आपु सींचो।।
(74)
जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,
जागि त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे।
करि बिचार, तजि बिकार, भजु उदार रामचंद्र,
भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे।।
मोहमय कुहू-निशा बिसाल काल बिपुल सोयो,
खोयो से अनूप रूप सुपन जू परे।
अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,
बासना, सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे।।
भागे मद-मान चोर जानि जातुधान,
काम-क्रेाध-लोभ-छोभ-निकर अपडरे।
देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,
ताप त्रिबिधि प्रेम-आप दूर ही करे।।
श्रवन सुनि गँभीर, जागे अति धीर बीर,
बर बिराग-तोष सकल संत आदरे।
तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे।।
(76)
खेाटेा खरो रावरो हौं, रावरी सौं, रावरेसों झूठ क्यों कहौंगो,
जानो सब ही के मनकी।
करम-बचन-हिये, कहौं न कपट किये, ऐसी हठ जैसी गाँठि,
पानी परे सनकी।।
दूसरो , भरोसो नहिं बासना उपासनाकी, बासव, बिरंचि,
सुर-नर-मुनिगनकी।।
स्वारथके साथी मेरे, हाथी स्वान लेवा देई, काहू तो न पीर,
रघुबीर!दीन जनकी।।
साँप-सभा साबर लबार भये देव दिब्य, दुसह साँसति कीजै,
आगे ही या तनकी।
साँचे परौं, पाऊँ पान, पंचमें पन प्रमान,तुलसी चातक आस
राम स्यामघन की।।
(78)
देव-
दीनको दयालु, दानि दूसरो न कोऊ।
जाहि दीनता कहैां हौं देखौं दीन सोऊ।।
सुर, नर, मुनि, असुर, नाग, साहिब तौ घनेरे।
पै तौ लौं जौ लौं रावरे न नेकु नयन फेरे।।
त्रिभुवन, तिहुँ काल बिदित, बेद बदति चारी।
आदि-अंत-मध्य राम! सहबी तिहारी।।
तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो।
सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो।।
पाहन-पसु बिटप- बिहँग अपने करि लीन्हे।
महाराज दसरथके! श्रंक राय कीन्हें।।
तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो।
बारक कहिये कृपालु! त्ुलसिदास मेरो।।