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"कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 11" के अवतरणों में अंतर

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सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी -सी मौंहें।
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सुन्दर बदन , सरसीरूह सुहाए नैन,
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मंजुल प्रसून माथें मुकुट जटनि के।
  
तून सरासन-बान धरें तुुलसी बन-मारगमें सुठि सोहैं।
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अंसनि सरासन, लसत सुचि सर कर,
  
सादर बारहिं बार सुभायँ चितै तुम्ह त्यों हमरो मनु मोहैं।
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तून कटि , मुनिपट लूटक पटनि के।।
  
पूँछत ग्रामबधू सिय सों, कहौ, साँवरे-से सखि ! रावरे को हैं।21।
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नारि सुकुमारि संग, जाके अंग उबटि कै,  
  
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बिधि बिरचैं बरूथ बिद्युतछटनि के।।
  
सुनि सुंदर बैन सुधारस -साने सयानी हैं  जानकीं जानी भली।
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गोरेको बरनु देखें सोनो न सलोनेा लागै,
  
तिरछे करि नैन, दै सैन तिन्है समुझाइ कछू , मुसकाइ चली।।
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साँवरे बिलोकें गर्ब घटत धटनि के।16।
  
तुलसी तेहिं औसर सोहैं सबै अवलोकति लोचनलाहु अलीं।
 
  
अनुराग -तड़ागमें भानु उदैं बिगसी मनो मंजुल कंजकलीं।22।
 
 
  
धरि धीर कहैं, चलु देखिअ जाइ, जहाँ सजनी! रजनी रहिहैं।
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बलकल-बसन, धनु-बान पानि, तून कटि,  
  
कहिहै जगु पोच , न सेाचु कछू ,फलु लोचन आपन तौ लहिहैं।
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रूपके निधान घन-दामिनी-बरन हैं।
  
सुखु पाइहैं कान सुनें बतियाँ कल, आपुस में कछु पै कहिहैं।।
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तुलसी सुतीय संग, सहज सुहाए अंग,  
  
तुलसी अति प्रेम लगीं पलकैं, पुलकीं लखि रामु हिए हैं।23।
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नवल कँवलहू तें केामल चरत हैं।।
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औरै सो बसंतु, और रति, औरै रतिपति,
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मूरति बिलोकें तन-मनके हरन हैं।
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तापस बेषै बनाइ पथिक पथें सुहाइ,
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चले लोकलोचननि सुफल करन हैं।17।
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बनिता बनी स्यामल गौर के बीच ,
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  बिलोकहु, री सखि! मोहि-सी ह्वै।
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मनुजोगु न कोमल, क्यों चलिहै,
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सकुचाति मही पदपंकज छ्वै।।
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तुलसी सुनि ग्रामबधू बिथकीं,
 
   
 
   
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पुलकीं तन, औ चले लोचन च्वै।
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सब भाँति मनोहर मोहनरूप,
  
पद कोमल, स्यामल -गौर कलेवर राजत कोटि मनोज लजाऐँ।
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अनूप हैं भूपके बालक द्वै।18।
  
कर बान-सरासन, सीस जटा, सरसीरूह -लोचन सोन सुहाएँ।
 
  
जिन्ह देखे सखी! सतिभायहु तें तुलसी तिन्ह तौ मन फेरि न पाए।
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साँवरे-गोरे सलेाने सुभायँ, मनोहरताँ जिति मैनु लियो है।
  
ऐहिं मारग आजु किसोर बधू बिधुबैनी समेत सुभायँ सिधाए।24।
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बान-कमान, निषंग कसें, सिर सोहैं जटा, मुनिबेषु कियेा है।।
  
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संग लिएँ बिधुबैनी बधू, रतिको जेहि  रंचक रूप दियो है।
  
मुख पंकज, कंजबिलोचन मंजु, मनोज-सरासन -सी बनीं भौंहें।
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पायन तौ पनहीं न , पयादेहिं क्यों चलिहैं, सकुचात हियो है।19।
  
कमनीय कलेवर कोमल स्यामल-गौर किसोर, जटा सिर सोहैं।।
 
  
तुलसी कटि तून, धरें धनु बान, अचानक दिष्टि परी तिरछौंहें।।
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रानी मैं जानी अयानी महा, पबि-पाहनहू तें कठोर हियो है।
  
केहि भाँति कहौं सजनी! तोहि सों मृदु मरति द्वै निवसीं मन मोहैं।25।
+
राजहुँ काजु अकाजु न जान्यो, कह्यो तियको जेहिं कान कियो है।।
  
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ऐसी मनेाहर मूरति ए, बिछुरें कैसे प्रीतम लोगु जियो है।
  
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आँखिनमें सखि! राखिबे जोगु , इन्हैं  किमि कै बनबासु दियो है।20।
 
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11:21, 17 मार्च 2011 के समय का अवतरण

 
 सुन्दर बदन , सरसीरूह सुहाए नैन,
 
मंजुल प्रसून माथें मुकुट जटनि के।

अंसनि सरासन, लसत सुचि सर कर,

तून कटि , मुनिपट लूटक पटनि के।।

नारि सुकुमारि संग, जाके अंग उबटि कै,

बिधि बिरचैं बरूथ बिद्युतछटनि के।।

गोरेको बरनु देखें सोनो न सलोनेा लागै,

 साँवरे बिलोकें गर्ब घटत धटनि के।16।



बलकल-बसन, धनु-बान पानि, तून कटि,

रूपके निधान घन-दामिनी-बरन हैं।

तुलसी सुतीय संग, सहज सुहाए अंग,

नवल कँवलहू तें केामल चरत हैं।।

औरै सो बसंतु, और रति, औरै रतिपति,

मूरति बिलोकें तन-मनके हरन हैं।

तापस बेषै बनाइ पथिक पथें सुहाइ,

चले लोकलोचननि सुफल करन हैं।17।


बनिता बनी स्यामल गौर के बीच ,

 बिलोकहु, री सखि! मोहि-सी ह्वै।

मनुजोगु न कोमल, क्यों चलिहै,

सकुचाति मही पदपंकज छ्वै।।

तुलसी सुनि ग्रामबधू बिथकीं,
 
पुलकीं तन, औ चले लोचन च्वै।

सब भाँति मनोहर मोहनरूप,

अनूप हैं भूपके बालक द्वै।18।


 साँवरे-गोरे सलेाने सुभायँ, मनोहरताँ जिति मैनु लियो है।

बान-कमान, निषंग कसें, सिर सोहैं जटा, मुनिबेषु कियेा है।।

संग लिएँ बिधुबैनी बधू, रतिको जेहि रंचक रूप दियो है।

पायन तौ पनहीं न , पयादेहिं क्यों चलिहैं, सकुचात हियो है।19।


रानी मैं जानी अयानी महा, पबि-पाहनहू तें कठोर हियो है।

राजहुँ काजु अकाजु न जान्यो, कह्यो तियको जेहिं कान कियो है।।

ऐसी मनेाहर मूरति ए, बिछुरें कैसे प्रीतम लोगु जियो है।

आँखिनमें सखि! राखिबे जोगु , इन्हैं किमि कै बनबासु दियो है।20।