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− | + | जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली, | |
+ | दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली- | ||
+ | मली मुख-चुम्बन-रोली । | ||
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− | + | एक-वसन रह गई मन्द हँस अधर-दशन अनबोली- | |
+ | कली-सी काँटे की तोली । | ||
− | + | मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली, | |
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+ | बनी रति की छवि भोली । | ||
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12:38, 20 मार्च 2011 का अवतरण
सप्ताह की कविता | शीर्षक : नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली ! रचनाकार: सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |
नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली ! जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली, दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली- मली मुख-चुम्बन-रोली । प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली, एक-वसन रह गई मन्द हँस अधर-दशन अनबोली- कली-सी काँटे की तोली । मधु-ऋतु-रात,मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली, खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली- बनी रति की छवि भोली । बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली, उठी सँभाल बाल, मुख-लट,पट, दीप बुझा, हँस बोली रही यह एक ठिठोली ।