भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"एक मुट्ठी रेत / कौशल किशोर" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कौशल किशोर |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> '''यह कविता इराक पर …)
(कोई अंतर नहीं)

22:57, 23 मार्च 2011 का अवतरण

यह कविता इराक पर अमेरीका के हमले के दौरान लिखी गई

सारी दुनिया के सीने पर सवार
जल्लादों का जल्लाद
खेलता है
तेल का खेल
पूंजी का खेल
लूट का खेल
तेल कार्टेल
बेफ़िक्र बेपरवाह बेलगाम
लोकतंत्र और शराफ़त का जामा ओढ़े
जंगली पागल हाथी की तरह मदमस्त
रौंदता जाता है
करोड़ो की जीवन-बेल ।

हमने कहा
सबने कहा
जन-जन ने समवेत स्वर में कहा
बंद करो यह नरमेघ
हमारे नुमाइन्दों आगे आओ
यह है हिटलर-मुसोलिनी का 21 वीं सदी का अवतार
कर देगा सारी दुनिया को तार-तार
देखो दजला फरात टिगरिस का हाल
सारा पानी रक्त से लाल-लाल
क्या बच पाएगा वोल्गा से गंगा तक का इलाका

आज इराक की बारी
कल होगा सारी दुनिया पर भारी
यह बेमेल युद्ध है
प्रकृति के विरुद्ध है।
पर
अपने अंतराष्ट्रीय आकाओं को नाख़ुश कौन करे
बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे
सब चुप
जैसे फँसी है उनकी दुम ।

क्या समुद्र क्या धरती क्या आसमान
सब पर पड़ रही है अत्याधुनिक हथियारों की मार
रात के अँधेरे को चीरती मिसाइलों की आग
हज़ारों टन बमों की बारिश मूसलाधार
चारों तरफ़ हाहाकार चीत्कार
भाग रहे लोग जान बचाने को खंदकों की ओर
आश्रय की तलाश में इधर से उधर
न खाने को अन्न न पीने को पानी
न साँस लेने के लिये आक्सीजन
चारों तरफ़ आग ही आग और धुआँ
दूषित हो गया है सारा वातावरण

खंडहरों में तब्दील हो रहा है शहर मलवे मकान
उजड़ रहा जैसे सारा कायनात
समूचा देश
मसोपोटामिया से इराक की
शताब्दियों की सांस्कृतिक विरासत
बच्चों के स्कूल खेल के मैदान
औरतों के श्रृंगार-कक्ष
कारखाने सड़कें दुकान
श्रम निर्मित संसार
सबको कुचलता इठलाता
महाविनाश का दैत्य करता है अट्ठहास
कैसा भयावह है यह दृश्य

मेरा पीछा करता है
सोने नहीं देता रात-रात भर
बेचैन मन
दूर जहाँ तक जाती निगाह
जले-अधजले मरे-अधमरे लोग
बूढ़े बच्चे जवान औरतें
टूटी बिखरी गाड़ियाँ
एक बच्ची रेत पर अचेत
पड़ी है ज़ख़्म और घावों का बोझ लिए
अपनी चेतना की वापसी के लिए जूझ रही है अनवरत

आसमान पर मंडरा रहे हैं बमवर्षक
अपाची हेलिकाप्टर
गुजर रहे हैं टैंकों के काफ़िले
तोड़े जा रहे हैं बुत
मिटाए जा रहे हैं
हर चिन्ह हर निशान हर कुछ
जिससे बनता है देश
यह नन्ही-सी बच्ची

हरकत लौट आई है
दर्द-कराह को पीते हुए खड़ी हो रही है
अपने पाँवों पर
सारी शक्ति को संजोते हुए
वह उठाती है अपनी धरती से एक मुट्ठी रेत
निशाना साधती है टैंकों के काफिले पर
आसमान पर चील की तरह मंडरा रहे अपाची पर
जैसे हाथ नहीं रॉकेट लाँचर हो
रेत नहीं मिसाइल हो
फिर उठाती है एक मुट्ठी रेत
निशाना साधती है
बार-बार दोहराती है
और हर बार नई ताज़गी, नए जोश से भर जाती है
लगता है इस नन्ही सी छोटी-सी बच्ची में
समा गया है सारा देश ।