भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"शिशिर की रात (1) / महेन्द्र भटनागर" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह= मधुरिमा / महेन्द्र भटनागर }} श...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=महेन्द्र भटनागर | |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर | ||
|संग्रह= मधुरिमा / महेन्द्र भटनागर | |संग्रह= मधुरिमा / महेन्द्र भटनागर | ||
− | }} | + | }}{{KKAnthologyShishir}} |
+ | {{KKCatKavita}} | ||
शिशिर-ऋतु-राज, राका-रश्मियाँ चंचल !<br><BR> | शिशिर-ऋतु-राज, राका-रश्मियाँ चंचल !<br><BR> | ||
01:01, 1 अप्रैल 2011 का अवतरण
शिशिर-ऋतु-राज, राका-रश्मियाँ चंचल !
कि फैला दिग-दिगन्तों में सघन कुहरा,
सजल कण-कण कि मानों प्यार आ उतरा,
प्रकृति-संगीत-स्वर बस गूँजता अविरल !
शिथिल तरु-डाल, सम्पुट फूल-पाँखुड़ियाँ,
रहीं चुपचाप गिर ये ओस की लड़ियाँ,
धवल हैं सब दिशाएँ झूमती उज्वल !
गगन के वक्ष पर कुछ टिमटिमाते हैं,
सितारे जो नहीं फूले समाते हैं,
सुखद प्रत्येक उर है नृत्यमय-झलमल !
धरा आकाश एकाकार आलिंगन,
प्रणय के तार पर यौवन भरा गायन,
फिसलता नीलवर्णी शून्य में आँचल !
विहग तरु पर अकेला कूक देता है,
किसी की याद में बस हूक देता है,
नयन प्रिय-पंथ पर प्रतिपल बिछे निर्मल !
सबेरा है कहाँ ? संसार सब सोया,
पवन सुनसान में बहता हुआ खोया,
अभी हैं स्वप्न के पल शेष कुछ कोमल !