"स्त्री-देह का उत्सव / मुसाफ़िर बैठा" के अवतरणों में अंतर
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भूमंडलीकरण के इस दौर में
पश्चिम समाज की तमाम उत्सवधर्मिता
हम चाहे अचाहे कर रहे हैं आयातित
अपने बुद्धि विवेक को
ताखे पर रखकर भी
अपने देश की
देह का उत्सव मनातीं उन्मुक्त स्त्रियां
एक ताजादम मिसाल हैं इसका
फैशन शो की रैम्प की
कामुक जिस्म नुमाईश हो या कि
बार गल्र्स और खेल के मैदानों में
चीयर गल्र्स का मद छलकाता इठलाता जलवा
या फिर सिनेतारिकाओं की सम्मोहक देह अदा
इन सब में कामोत्तेजक अवयवों पर
अधिक फ्लैश होता है
यही गणित आयद होता है
झीने छोटे अल्प वस्त्राों में
स्त्री-देह को प्रस्तुत करने में भी
वहीं वहीं वस्त्राों का हरण क्षरण होता है
जिन नार अंगों को निहारते
मर्दों का फन फन से जाग उठता है
स्त्री-बसनों की फैशन डिजाइनिंग की
कतर ब्योंत में दरअसल
सेक्स अपील की
भरपूर छौंक नियोजित होती है
देह का यह चरम उत्सव
नारी स्वतंत्राता की पुरुषकामित परिभाषा की
आड़ लेकर ही घटित होता है
मसलन
काम अपील की तन शक्ति को
आम करना बोल्ड नारीत्व का
निदर्शन बन गया है आजकल
काम अंगों कास्त्री-देह पर प्रसार
नर की बनिस्बत अधिक मुखर है
बावजूद इसके पुरुष चालित इस समाज में
देह को वस्त्रा से मुक्त करने का चलन
जमाने से ही महिलाओं में अधिक है
दुनिया के किसी आन समाज से कहीं ज्यादा
दकियानूस व उत्सवसेवी रहा है हमारा समाज
नारी रूप ईश्वर भी पूजे जाते रहे हैं यहां खूब
सामंती रचाव वाले पुरुष मन के लिए
अंगना देह का उत्सव
भले ही मनता रहा हो सदियों से
पर अबके आधुनिकाओं का अपनी मनमर्जी
स्त्री-देह का उद्दाम उत्सव मनाना
भारत जैसे बंद समाज के देह खुलेपन का
बिलकुल नया प्रसंग है
खुलेपन की देह पर अंटे भी
बेशक अलग अलग मत होंगे
कि जिसे कोई नाजायज कहे उसे ही
कोई करार दे दे जायज
पर स्त्री-देह के खुलेपन के
जायज नाजायज होने का मापक
हो सकती है यह कवायद
कि स्वच्छतानंद लेती आधुनिकाएं
अपनी देह का उत्सव मनवाना
कर दे स्थगित और थाहे करके इंतजार कि
स्त्री-देह से लगी अपनी यौन उत्कंठा एवं
उत्सवप्रियता की बेकली का
पुरुष किस बेकरारी से इजहार करता है ।
वेलेन्टाइन डे 2008