"माँ का अछोर आँचल / मुसाफ़िर बैठा" के अवतरणों में अंतर
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मां की जननी नजरों में
कभी व्यस्क बुद्धि नहीं होता बेटा
मां के प्यार में इतनी ठहरी बौनी
रह जाती है बेटे की उम्र कि
अपने साठसाला पुत्रा को भी मां
घर से विदा करने के वक्त
लगा देती है दिठौना
लेती है बलइयां
ताकि उसे किसी की नजर न लगे
टोकरी भर हिदायतें
थमा जाती है उसे ऐसे
मानो कोई दूधपीता बच्चा ही हो अभी वह
कहती है ऐसी ऐसी बात कि
अन्यथा वो हंसी करने लायक बात होती
कि बेटे सावधानी से
गाड़ी-घोड़े में चढ़ना उतरना
बरतना सड़क पार करने में अतिरिक्त सावधानी
आगे पीछे दायें बायें मुड़ देख कर
हो लेना इत्मीनान
खूब मेरे लाल
ताकि छू न पाए
किसी अशुभ अचाहे का
कोई कोना रेशा भी तुझे
मां की आंखों से
गर दूर जाता हो बेटा
तो आंख भर देखकर भी
नहीं भरता उसका ममता स्नात मन
और बेटे से एक पल की दूरी
उसे सौ योजन समान लगने लगती है
और ममता की सघन आंच लिए
आंखंे बिछी रहती हैं उसकी लगातार
अपने जिगर के टुकड़े द्वारा तय की राहों में
बिना कोई खरोंच लगे वापस उसे पाने तक
अपने अनुभवों की
मानो सारी उम्र उलीच
झूठसच बुराभला अकर्तव्यकर्तव्य का
पूरा पाठ पढ़ा
कालिदास ही बना देना चाहती है मां
अपनी आंखों से ओझल होते
पुत्रा को उसी वक्त
जबकि दुनिया से
खूब दो चार हो चुका होता है वह तब तक
नाती पोते के वैभव से
हरियर पुत्र को भी
मां की यह हिदायत होती है आयद
कि परदेस जाते हो बेटा तो
दो बातों का गठरी में बांधकर रखना खयाल
जीभ और जुबान पर
हमेशा लगाए रखना लगाम
कि इन्हीं दो बातों का
टंटा है सारे दुनियाजहान में
यही मुंह खिलाता है पान
यही मुंह लात
मां हो जाए
लाख बूढ़ी जर्जरकाय कार्यअक्षम
बेटे की खातिर वह
बर्तन छुए बिना नहीं रह सकती
नहीं पा सकता पुत्रा
नवविवाहिता पत्नी से भी
दाल औ कढ़ी बरी में
वह अन्तस् की छौंक व महक
जो मां की जननी हाथों की
छुअन में होती है
मां चाहती है कि
उसके बेटे का दामन भरा रहे सदा
खुशियों के अघट घट से
और उसके दुख दर्दांे की बलइयां लें
खुद नीलकंठ बन वह
बेटे के सुख सुकून की निगहबानी कर
अपना हिय सतत जुराती रहे
बाकी सारे प्यार में कुछ न कुछ मांग है
मां के निर्बंध प्यार में सिर्फ दान ही दान है ।
2007