भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सोया हुआ वह परिवार / प्रियदर्शन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रियदर्शन |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> सड़क के बिल्कुल क…)
 
(कोई अंतर नहीं)

00:11, 7 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

सड़क के बिल्कुल किनारे
गुडी-मुडी सोया दिखा वह परिवार
नीचे की रेत पर बिछी तुड़ी-मुड़ी चादर के मुचड़े हुए सिरे
और उसके भीतर सिकुड़े बदन बता रहे थे
कि चादर के हिसाब से पाँव समेटने का अभ्यास
पुराना है
बगल के पेड़ के पास तने से बँधी संदूक दिखी
और सिहरा हुआ मैं बस इतना सोच पाया
कि पूरा घर साथ चला है ।
यह रात दस बजे के आसपास का समय होगा
जो दिल्ली या गाज़ियाबाद की भीड़ भरी सड़कों पर
सोने के लिहाज से काफी असुविधाजनक होता है
फिर भी सोया हुआ था पूरा परिवार
बेख़बर गहरी नींद में,
इस बात से बेपरवाह कि कहीं कोई उसका संदूक
तो नहीं चुरा ले जाएगा ।
शायद इसलिए नहीं कि संदूक में चुराने लायक
कुछ नहीं रहा होगा,
यह असंवेदनशील ख़याल हमारी तरह के
लोगों को ही आ सकता है जो
पुराने पड़ गए कपड़ों और संदूकों को बेकार समझ कर
अपनी आत्मतुष्ट दया पर इतराते हुए
महरी या मज़दूर या कबाड़ीवाले या चौकीदार
किसी को भी पकड़ा देते हैं ।

हो सकता है, इस सोए हुए परिवार को
भी कहीं से मिला ही हो वह संदूक
और उसमें भी किसी के दिए हुए बेडौल कपड़े ही ठुँसे पड़े
हों कुछ पुराने बर्तनों और बहुत सहेजकर रखी गई कुछ चूड़ियों
और कुछ टूटे खिलौनों के बीच,
लेकिन इस विस्थापित समय में
यह उसकी सबसे मूल्यवान थाती है
उसका छूटा हुआ घर है
उसकी छूटी हुई याद है
बच्चों की अधनींदी आंखों की आख़िरी चमकती उम्मीद है
घरवाली का ठहरा हुआ अपार धीरज है
और किसी मेहनतकश के न ख़त्म होने वाले सफ़र का इकलौता असबाब है
फिर भी यह परिवार इस संदूक को भूलकर
चादर के नीचे से सड़क किनारे की चुभती हुई रेत
पर ही नींद की गहरी साँसें ले रहा है
तो समझना चाहिए, वह बहुत दूर से पैदल चलकर आया है
इतना थका हुआ है कि उसकी थकान उसके पूरे वजूद पर,
उसकी सारी चिंताओं पर हावी है,
इस डर पर भी कि कोई अचानक आकर उसे उठा नहीं देगा ।
यह सोचकर कलेजा मुँह को आता है
कि छोटे-छोटे बच्चों ने भी सूखी जीभ, डरी हुई आँखों
और जलते हुए पाँवों के बीच यह सफ़र तय किया होगा ।

लेकिन इतना क्यों सोच रहा हूं मैं इस परिवार के बारे में ?
जिस राजधानी से मैं रोज़ गुज़रता हूँ
उसकी कई सड़कों पर ऐसे सैकड़ों परिवार सोए होते हैं
उनके पास भी ऐसे ही संदूक होते होंगे, ऐसी ही चादरें
उनके नीचे रेत की यही चुभन होती होगी
और इतनी ही गहरी थकान
कि आती-जाती गाड़ियों के शोर
में भी वे सो लेते होंगे ।
फिर क्यों अपनी सोसाइटी के बाहर अचानक
दिख गया यह परिवार मेरे भीतर इतनी करुणा जगा रहा है
कि पूरे परिवार को उठाकर कायदे का खाना खिलाकर कहीं ठीक से सुला
देने की बड़ी गहरी इच्छा जागती है
और जिसे दबाने की कोशिश में मैं
ख़ुद को दबा हुआ और कातर महसूस करता हूँ ।
क्या इसलिए कि इस वक़्त मैं पैदल चल रहा हूँ
और मेरी आँखें आसपास देख पा रही हैं ?
या इसलिए कि ठीक अपने पड़ोस में ऐसा पड़ोस
मुझे विचलित कर रहा है ।

समझने की बात सिर्फ़ इतनी है कि
इस महानगर में रहते हुए
हम आँख मूँद कर ही जी पाते हैं ।
तेज़-तेज़ चलाते हैं गाड़ी, तेज़-तेज़ करते हैं बहस,
घर या दफ़्तर या मॉल से निकल कर
तेज़-तेज़ क़दमों से पहुँचते हैं पार्किंग तक
और फिर चढ़ा लेते हैं शीशे
चला लेते हैं ए.सी. और स्टीरियो
कि बाहर की धूल और ध्वनियाँ
शीशे पर सिर पटक कर लौट जाएँ ।
तेज़ी से चलाते हुए गाड़ी
इस तरह निकलते हैं, जैसे दुनिया के सबसे ज़रूरी काम
हमारे लिए ही छूटे पड़े हैं ।
इन सबके बावजूद
ठीक अपनी सोसाइटी के बाहर
इत्मिनान से शुरू हो रही एक
रात की बेख़बर चहलकदमी में
जब पेड़ के नीचे दिख जाता है कोई परिवार
गुडी-मुडी सोया हुआ
कोई संदूक पेड़ से लगा हुआ,
कुछ मुड़े हुए पाँवों को ढँकने में नाकाम चादर मुचड़ी हुई
तो लगता है, उस परिवार की गरीबी
हमारे मुँह पर थप्पड़ मार रही है ।

कहाँ से आया है यह परिवार ?
कितनी दूर चलकर ?
क्या छोड़कर ?
क्या सोचकर ?
क्या कुछ करने के इरादे से ?
क्यों अपने घर और गाँव छोड़कर चले आ रहे हैं
इतने सारे परिवार ?
कौन है इनके विस्थापन का ज़िम्मेदार ?

जानता हूँ, जब नींद आने लगेगी,
ये सारे सवाल ख़त्म हो जाएँगे
नहीं सोचूँगा
कि महानगर की एक अनजानी सड़क के किनारे
कैसे कटी होगी इस परिवार की रेतीली-चुभती हुई, पहली फटेहाल रात ?
सुबह मर्द कहीं मज़दूरी खोजेगा
औरत कहीं करेगी बर्तन-बासन
और बच्चे शुरू में शहर की नई गाड़ियों को
हैरानी और कौतूहल से देखेंगे
और फिर उन्हें पोछते-पोछते बड़े हो जाएँगे ।