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"अश्रु गौतम के / राजश्री" के अवतरणों में अंतर

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भावों से भरे थे
कमु से या कुभा से
कहाँ से आये थे
पर्वत की शिलाऐं नहीं जानती
थी शिल्पी के हृदय में
तथागत की वाणी।
छैनी हथोड़ी के आघातों से
हुआ भाव–संयोजन
धातु और पाषाण में
बनी प्रस्तर प्रतिमा गोतम की
भाव ही प्राण थे
भाव ही सेतु थे
मानव की उपासना के
अभिव्यक्ति के।

शांत करूणा थी
मुर्ति के मुख पर
प्रतिमा ने सदिया देखी
धूप आंधी तूफान
आये, चले गये।
प्रतिमा नहीं थी वह
स्वपन था रचियता का
मुस्कानें जो शिशुओं के मुख पर हो
अश्रु जो उनके गालों पर हो तो
हाथ उन्हे झुलाने को उठते हो।

एक दिन सब बदल गया
प्रस्तर प्रतिमा गोतम की
महालय में एक विशाल पाषाण!
मौन खडी देखती रही
अपने अंगों पर होते
बारूद के आघात झेलती रही
अश्रु न एक गिरा
पाषण मुर्ति जो थी!

उस मुर्ति का हृदय प्रेम भरा
व्याप्त हो जायेगा
विश्व मानव के मन में
ऐसा ही सोचा होगा
रचयिता ने
मूर्ति का क्या है
जो था वो तो
अहिंसक प्रेम भरा मन था
भावों का संयोजन था
उसे ही विराट होना था।

रसा ्रकमु कुभा की भुमि
नवपल्लव सिसकते है
हाथ हत्या के लिये उठते है
मानव का मन
पाषाण ऐसा भी होता है!
गोतम की ध्वसत
प्रस्तर प्रतिमा
अश्रुपूरित हो गयी