"ज़िंदगी की कहानी / जानकीवल्लभ शास्त्री" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जानकीवल्लभ शास्त्री }} {{KKCatKavita}} <poem> ::ज़िंदगी की क…) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | + | ज़िंदगी की कहानी रही अनकही ! | |
− | + | दिन गुज़रते रहे, साँस चलती रही ! | |
अर्थ क्या ? शब्द ही अनमने रह गए, | अर्थ क्या ? शब्द ही अनमने रह गए, | ||
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए, | कोष से जो खिंचे तो तने रह गए, | ||
वेदना अश्रु-पानी बनी, बह गई, | वेदना अश्रु-पानी बनी, बह गई, | ||
− | + | धूप ढलती रही, छाँह छलती रही ! | |
बाँसुरी जब बजी कल्पना-कुंज में | बाँसुरी जब बजी कल्पना-कुंज में | ||
चाँदनी थरथराई तिमिर पुंज में | चाँदनी थरथराई तिमिर पुंज में | ||
पूछिए मत कि तब प्राण का क्या हुआ, | पूछिए मत कि तब प्राण का क्या हुआ, | ||
− | + | आग बुझती रही, आग जलती रही ! | |
जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला, | जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला, | ||
मन न कुंदन बना, तन तपा, तन गला, | मन न कुंदन बना, तन तपा, तन गला, | ||
कब झुका आसमाँ, कब रुका कारवाँ, | कब झुका आसमाँ, कब रुका कारवाँ, | ||
− | + | द्वंद्व चलता रहा पीर पलती रही ! | |
बात ईमान की या कहो मान की | बात ईमान की या कहो मान की | ||
चाहता गान में मैं झलक प्राण की, | चाहता गान में मैं झलक प्राण की, | ||
साज़ सजता नहीं, बीन बजती नहीं, | साज़ सजता नहीं, बीन बजती नहीं, | ||
− | + | उँगलियाँ तार पर यों मचलती रहीं ! | |
और तो और वह भी न अपना बना, | और तो और वह भी न अपना बना, | ||
आँख मूंदे रहा, वह न सपना बना ! | आँख मूंदे रहा, वह न सपना बना ! | ||
चाँद मदहोश प्याला लिए व्योम का, | चाँद मदहोश प्याला लिए व्योम का, | ||
− | + | रात ढलती रही, रात ढलती रही ! | |
यह नहीं जानता मैं किनारा नहीं, | यह नहीं जानता मैं किनारा नहीं, | ||
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं ! | यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं ! | ||
जुस्तजू में किसी मौज की, सिंधु के- | जुस्तजू में किसी मौज की, सिंधु के- | ||
− | + | थाहने की घड़ी किन्तु टलती रही ! | |
</poem> | </poem> |
23:01, 11 अप्रैल 2011 का अवतरण
ज़िंदगी की कहानी रही अनकही !
दिन गुज़रते रहे, साँस चलती रही !
अर्थ क्या ? शब्द ही अनमने रह गए,
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
वेदना अश्रु-पानी बनी, बह गई,
धूप ढलती रही, छाँह छलती रही !
बाँसुरी जब बजी कल्पना-कुंज में
चाँदनी थरथराई तिमिर पुंज में
पूछिए मत कि तब प्राण का क्या हुआ,
आग बुझती रही, आग जलती रही !
जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला,
मन न कुंदन बना, तन तपा, तन गला,
कब झुका आसमाँ, कब रुका कारवाँ,
द्वंद्व चलता रहा पीर पलती रही !
बात ईमान की या कहो मान की
चाहता गान में मैं झलक प्राण की,
साज़ सजता नहीं, बीन बजती नहीं,
उँगलियाँ तार पर यों मचलती रहीं !
और तो और वह भी न अपना बना,
आँख मूंदे रहा, वह न सपना बना !
चाँद मदहोश प्याला लिए व्योम का,
रात ढलती रही, रात ढलती रही !
यह नहीं जानता मैं किनारा नहीं,
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं !
जुस्तजू में किसी मौज की, सिंधु के-
थाहने की घड़ी किन्तु टलती रही !