"चिड़ियों के साथ-3 / मीना अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर
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11:38, 12 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
गौरैया फुर्र से उड़ गई
आकाश की ओर बादलों से बातें करने
विचारप्रवाह टूटा
एलबम का तीसरा पन्ना खोला
डूब गई पुरानी सजल
मासूम यादों में !
जब मैं मात्र साढ़े सात साल की थी
माँ गई थीं यात्रा पर
यात्रा थी बड़ी कठिन लम्बी और दुरूह
विदाई के समय भजन और मंगलगीतों से
भीगा पर उदास वातावरण
सहमा घर का आँगन
सूनी घर की पौरी दादी के मुख से
आशीष की अजस्र धारा
आखों से छलकते अश्रु भाई-बहिनों की
माँ को निहारतीं उदास, मौन और सजल आँखें
कह रही थीं
अपनी ही भाषा में कुछ-कुछ !
माँ की आँखों ने पढ़ा हमारे मन को
पास आकर सहलाया, दुलारा
जाते समय माँ ने दिया
मुझे और मेरी बड़ी बहिन को
आठ आने का एक-एक सिक्का
और मेवा से भरा
हरे रंग का टीन का छोटा डिब्बा ,
मेवा के साथ-साथ
भरा था जिसमें
माँ का प्यार-दुलार
और माँ की अनगिन यादें !
एक रेशमी रूमाल
जिसमें बँधा था डिब्बा
उस पर छपा हुआ था
सन् उन्नीस सौ अड़तीस के बारह महीनों का कलैंडर !
डिब्बा और रूमाल
मेरे अनमोल खजाने में आज भी हैं सुरक्षित !
आज भी माँ के शब्द
गूँज रहे हैं कानों में---
‘ बेटी ! जब मन करे
दोनों बहिनें मेवा खा लेना
पैसों से कुछ ले लेना
पर हाँ ! दादी को मत बताना,
किसी को परेशान भी मत करना,
मैं जल्दी ही यात्रा से आ जाऊँगी !’
सवा साल की मेरी छोटी बहिन गई थी
माँ के साथ यात्रा पर
मेरा मन भी डोला साथ जाने को
पर मुझे छोड़कर चली गईं माँ !
जाने के बाद
कभी लौटकर नहीं आईं
उड़ गईं हरियल तोते की तरह,
क्रूर नियति ने
छीन लिया माँ का दुलार,
कर दिया मातृविहीन !
आज जब भी आती है
माँ की याद
डबडबाती हैं आँखें डगमगाते हैं क़दम
लड़खड़ाता है मन
किंतु माँ के द्वारा दिए गए
मेवा के डिब्बे की हरियाली
कर देती है मन को हरा,
और जब भी खोलती हूँ उसे
तो स्मृतियों के बादल
उड़ने लगते हैं मेरे इर्द-गिर्द
वे थपथपाते हैं मुझे
दिखाते हैं राह जगाते हैं हिम्मत
विषमताओं में जीने की !
जब देखती हूँ रूमाल
तो माँ की मीठी-मीठी यादें लगती हैं गुदगुदाने
समय की मार झेलते-झेलते हो गए हैं
रूमाल में अनगिन छेद
मैं उन छोटे-छोटे छेदों से
नहीं रिसने देती हूँ
रेत बनी अपनी मासूम स्मृतियों को
और पुनः रख लेती हूँ सहेजकर
अपने मन की अलमारी में !