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"क़िताब में फूल / प्रमोद कुमार" के अवतरणों में अंतर

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18:15, 13 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

मेरी पीठ पर क़िताब थी
तुम्हारे हाथों में फूल
पन्नों के बीच
तुमने फूल रख दिए
     क़िताब हमारे हाथों में आ गई,

कक्षाओं को ख़त्म हुए तो वर्षों बीत गए
वैसे भी परीक्षा के बाद
कुछ ही क़िताबें निभाती हैं साथ
हाँ, जिनमें फूल रखे होते हैं
वह हरदम, पूरे मन से,
उनकी कोई लिखावट
कभी धूमिल नहीं होती
उन पर हमारी परीक्षाएँ भी
होती रहती हैं बार-बार,

क़िताब में छिपे फूल
छिपते नहीं
सिलाई के टूटने
पृष्ठों के आगे-पीछे हो जाने
शीर्षकों की उम्र पूरी होने
और
बाहरी-भीतरी चूहों के ज्ञात
भीतरघात के बावज़ूद
क़िताब को खुला रखते हैं
            और दिख जाते हैं
            बाहर रहनेवालों को भी,

लगता है
     संसार की कालजयी किताबों के
लिखे जाते वक़्त भी
उनके पन्नों के बीच
हमने फूल रख दिए थे,

इतिहास में रखा
बुद्ध आ गए पढ़ाने
भूगोल में
हर जगह अपने जीवाश्म मिले,

काश! हम
         संविधानों में भी
         रख पाए होते कोई फूल
         तो आज एक होती सबकी घड़ी,

आज जो पन्ना मेरे सामने खुला है
मैं पहुँचा गया हूँ उसकी कक्षा में
तुम भी तो अक्सर पहुँचती होगी यहाँ
भले ही तुम्हारा समय
और मेरी घड़ी की टिक-टिक
कुछ अलग क्यों न हो गए हों !

            तुम्हें याद है न !
हमने अन्त का जो अपना एक पाठ चुना था
उसमें भी तो रखा हुआ है एक फूल !