"बेचैनी का सबब (कविता) / विमल कुमार" के अवतरणों में अंतर
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03:08, 17 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
मेरे लिए तुम्हारा प्रेम कोई सौदा नहीं था
नहीं था कोई अनुबन्ध, करार, घोषणापत्र
ज़रूरत पड़ने पर सिर्फ़ काम के काम भी नहीं था
नहीं थी कोई वासना, लिप्सा
था तो सिर्फ़ इतना
तुम थोड़ी देर के लिए यहाँ सीढ़ियों पर बैठ जाती
मैं तुम्हारी छाया के साथ थोड़ी देर
सुस्ता लेना चाहता था
अपना सुख और दुख बताना ही
मेरे लिए प्रेम था
इसलिए मैं कहता हूँ
तुम ज़रा अपनी माँ और पिता और भाई के बारे में बताती
बताती अपने बच्चों के बारे में
कितनी जकड़न है उसके सीने में
कितना कफ़ जमा है
इसलिए मैं यह भी बार-बार तुमसे कहता हूँ
मैं तुम्हें प्यार नहीं कर रहा था
मैं तो इस दुनिया को जानने का
जीवन को पहचानने का उपक्रम कर रहा था
मैं तो अपनी ज़िन्दगी जी रहा था
जो मुझे छोड़कर चली गई थी कहीं
इस शहर में
मेरे पंख नोच लिए गए थे
मेरी इच्छाएँ कुतर दी गई थीं
छीन ली गई थी साँसे मुझसे
नथुनों में आक्सीजन नहीं
ढेर सारा कार्बन-डाइक्साइड भर गया था
सब्ज़ी ख़रीदने निकला था
निकला था दूध लाने
तो रास्ते में ही बेहोश हो चुका था
गिरा पड़ा था सड़क के किनारे
मेरा चेहरा भी मेरी पत्नी नहीं पहचान पा रही थी
मेरी लिखावट भी मेरी बेटी पहचान नहीं पा रही थी
उस अँधेरे में
ऐसे में मैं और कर क्या सकता
इस बुढ़ापे में
एक पुलिया पर बैठा
तेज अँधड़ को आते-जाते देखकर
चाँद को ढलते देखकर
सूरज को रोज़ पसीने से तर-बतर निकलते देखकर
किस तरह चीज़ें ख़रीदी जा रही हैं
किस तरह बेची जा रही हैं
इसलिए मैं कहता हूँ
मेरे लिए प्रेम कोई सौदा नहीं था
वह दिल को बहलाने का
ग़ालिब ख़याल भी नहीं था
वह एक ऐसी पुकार थी
जो किसी पुराने कुएँ के भीतर से
या किसी ढह गए किले के अन्दर से
आती थी और मुझे बेचैन कर जाती थी
मैं तो केवल इस बेचैनी का सबब ढूँढ़ रहा हूँ ।