भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कल्पना में प्रेम / विमल कुमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= विमल कुमार |संग्रह=बेचैनी का सबब / विमल कुमार }} {{KK…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
04:47, 17 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
कल्पना में ही रहो
बेहतर है
आसमान पर चाँद की तरह टँगी रहो
धरती पर न उतरो
यहाँ कि आबोहवा तुम्हें डँस लेगी
बहुत होगी तुम्हें तकलीफ़
तुम्हारा चेहरा, तुम्हारा रंग बदल जाएगा
फिर तुम वह नहीं रहोगी
जो कि कल्पना में दिखती हो
तुम्हारा सौन्दर्य झर जाएगा
बच्चे की फ़ीस जमा करते-करते
पानी और बिजली का बिल चुकाते-चुकाते
बस से दफ़्तर आते-जाते
तुम बूढ़ी हो जाओगी
एक दिन, बेरंग हो जाओगी
तुम्हें अपना चेहरा आईने में
पहचान में नहीं आएगा
इसलिए मैं कहता हूँ
तुम कल्पना में ही रहो
वहीं से प्रेम करो
यहाँ आकर तो वह भी
ख़त्म हो जाएगा
घर-गृहस्थी के चक्कर में