"सीलमपुर की झुग्गियाँ / रमेश प्रजापति" के अवतरणों में अंतर
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11:07, 18 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
दिल्ली की छाती पर खरपतवार-सी उगीं
जीवन के बीहड़ में
ढूँढ़ ही लेती हैं पंरिदों की तरह
अपने हिस्से का दाना-पानी सीलमपुर की झुग्गियाँ
सीलमपुर की डेढ़ गज ज़मीन पर
भिनभिनाते गंदे नाले के किनारे बसी
‘अनेकता में एकता’ से भरी इन झुग्गियों में
जाति-धर्म के खौफ़नाक टोने-टोटकों से परे
खुलती है पूरी दुनिया
कुलाँचे भरता है भाईचारे का खरगोश
इनकी दमघोटू तंग गलियों में
ज़ुबान पर तैरती है अपनेपन की मिठास
यहाँ एक का दुख है दूसरे का
और भूले-भटके आए सुख में सब की हिस्सेदारी
एक झुग्गी में टूटी प्याली की खनक से
हिल उठती है आख़िरी झुग्गी तक
सुबह का सूरज छीलकर शाम की उदासी
मुस्कराता है इनके मटियाले चेहरों पर
कबाड़ी की मज़दूरी करते
तलाशती हैं झुग्गियों की कामगार लड़कियाँ
अपने हिस्से के रंग और
इस मेट्रो शहर के हाथ से छिटकी खुशियाँ
बिगड़े सांड़ जैसे वक़्त की बेरहम उदासी ने
छीन लिए उमंग के सारे रंग
कन्नी काटकर निकल जाते हैं मीठे सपने
आरामतलब रातों की तरफ़
यमुना के पानी की टिमटिमाती रोशनी में
सीझती रहती हैं इनकी रातें
कभी-कभी इतनी ज़िद्दी हो जाती हैं
सीलमपुर की लड़कियाँ
कि शुष्क दिनों में भी
पतझड़ के चंगुल से छीनकर मुट्ठी-भर बसंत
उड़ा देती हैं उमंगों की तितलियों के पंखों पर
इनके मन की थाह
बमुश्किल ही खोज पाए
यहाँ टूटती हैं भ्रम की सारी गाँठें
यहां धँसक जाती है बीड़ी-गुटके की दलदल में
दुखों-भरी हाँपती-खाँसती रातें
बासी रोटी-सा टूट जाता है
इनकी खुरदरी हथेली पर रखा दिन
कड़वे अनुभवों से भरे मटमैले धब्बों का इतिहास
पढ़ा जा सकता है मकड़ी के जाले से बुने
इनके झुर्रीदारे चेहरों पर
इनकी फटी जेबों में नहीं गिरता बाज़ार का जादू
आश्वासनों के कल्पवृक्ष पर लटका
कभी नहीं लुढ़कता इनकी खपरैलों पर
राष्ट्रीय योजनाओं का मीठा-द्रव्य
इनकी झोली में झरने से पहले ही
सुख के सितारे चिपक जाते हैं अचानक टूटकर
तेज़ दौड़ती सड़क की छाती पर
जेठ की लू-भरी दुपहर में
जब सूरज होता है अपने पूरे शबाब पर
तब अमलतास के फूलों-सी खिलखिलाती
सूखी टहनियों के पीछे
छुपा होता है इनकी घुच्ची आँखों में टूटने का डर
फुसफुसाते ही सफ़ेद गलियारों के
इनकी लपटों से जलने लगती हैं आसमान की भौंहें
जब कोई सरकारी मुलाजिम
लादकर योजनाओं से भरा झोला
गुज़रता है इनकी बदबूदार गलियों से
बड़ी तेज़ी से खड़कते हैं इनके कान
ज़रा-से ताप में ही
पिघलने लगता है मोमबत्ती-सा
इनकी आत्मा में बैठा डर
और हल्के-से हवा के झोंके में ही
काँप उठता सारंगी-सा इनका मन
अचानक बुरे दिनों का बाज़
नोंच डालता है झपट्टा मारकर
कबूतर की चोंच में झूलते तिनके-सी
इनके अच्छे दिनों की चिट्ठी
विश्वग्राम की परछाईं से दूर
कवि की स्मृतियों में
कौंध उठता है काँस के जंगल-सा
धरती के दूसरे छोर पर बसा
गाँव का भोलापन
आकाशगंगाओं में नहाती इस ग़ालिब की दिल्ली में
हरदम चमगादड़-सी चिपकी इनके जहन में
झुग्गियों के टूटने के बरक्स
कोई मायने नहीं रखती पेट की चिंता
जब देश के कोचवान से
छूटने लगती है सत्ता के घोड़े की लगाम
तब अपने हाथों की माँसपेशियाँ
मज़बूत करने की याद आती हैं उसे
महानगरों के चमचमाते गालों पर
मुँहासे के धब्बे-सी फैलीं
सीलमपुर जैसी ये झुग्गियाँ
सच कहूँ दोस्त ! तुम्हें नहीं लगता कि
जितना आगे बढ़ रहे हैं हम
उतने ही पीछे छूटते जा रहे हैं हमारे रिश्ते
घुन लगी काठ हो गई हमारी
जब रिश्ते तुलने लगे हों बाज़ार के तराजू पर
ऐसे में हर संवेदनाहीन महानगर की छाती पर
उगनी ही चाहिए सीलमपुर जैसी ये झुग्गियाँ
जिनमें बसता है हमारे सपनों का भारत