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"कृष्ण-जन्म / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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आनंदै आनंद बढ्यौ अति ।<br>
 
आनंदै आनंद बढ्यौ अति ।<br>

19:55, 18 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

आनंदै आनंद बढ्यौ अति ।
देवनि दिवि दुंदुभी बजाई,सुनि मथुरा प्रगटे जादवपति ।
विद्याधर-किन्नर कलोल मन उपजावत मिलि कंठ अमित गति ।
गावत गुन गंधर्व पुलकि तन, नाचतिं सब सुर-नारि रसिक अति ।
बरषत सुमन सुदेस सूर सुर, जय-जयकार करत, मानत रति ।
सिव-बिरञ्चि-इन्द्रादिअमर मुनि, फूले सुखन समात मुदित मति ॥1॥

देवकी मन मन चकित भई ।
देखहु आइ पुत्र-मुख काहे न, ऐसी कहुँ देखी न दई ।
सिर पर मुकुट, पीत उपरैना, भृगु-पद-उर, भुज चारि धरे ।
पूरब कथा सुनाइ कही हरि, तुम माँग्यौ इहिं भेष करे ।
छोरे निगड़, सोआए पहरू, द्वारे की कपाट उधर्‌यौ ।
तुरत मोहि गोकुल पहुँचावहु, यह कहिकै किसु वेष धर्‌यौ ।
तब बसुदेव उठे यह सुनतहिं, नँद-भवन गए ।
बालक धरि, लै सुरदेवी कौं, आइ सूर मधुपुरी ठए ॥2॥

गोकुल प्रगट भए हरि आइ
अमर-उधारन, असुर-सँहारन, अंतरजामी त्रिभुवन राइ ।
माथै धरि बसुदेव जु ल्याए, नंद-महर-घर गए पहुँचाइ ।
जागी महरि, पुत्र-मुख देख्यौ, पुलकि अंग उर मैं न समाइ ।
गदगद कंठ, बोल नहिं आवै, हरषवंत ह्वै नंद बुलाइ ।
आवहु कंत, देव परसन भए, पुत्र भयौ, मुख देखौ धाइ ।
दौरि नंद गए, सुत-मुख देख्यौ, सो सुख मोपै बरनि न जाइ ।
सूरदास पहिलैं ही माँग्यौ, दूध पियावत जसुमति माइ ॥3॥

हौं इक नई बात सुनि आई ।
महरि जसौदा ढोटा जायौ, घर-घर होति बधाई ।
द्वारैं भीर गोप-गोपिन की, महिमा बरिन न जाई ।
अति आनन्द होत गोकुल मैं, रतन भूमि अब छाई ।
नाचत वृद्ध, तरुन अरु बालक, गोरस-कीच मचाई ।
सूरदास स्वामी सुख-सागर, सुन्दर स्याम कन्हाई ॥4॥


आजु नन्द के द्वारें भीर ।
इक आवत, इक जात बिदा ह्वै, इक ठाड़े मन्दिर कैं तीर ।
कोउ केसरि कौ तिलक बनावति, कोउ पहिरति कंचकी सरीर ।
एकनि कौं गो-दान समर्पत, एकनि कौं पहिरावत चीर ।
एकनि कौं भूषन पाटंबर; एकनि कौं जु देत नग हीर ।
एकनि कौं पुहपनि की माला, एकनि कौं चन्दन घसि नीर ।
एकनि मथैं दूध-रोचना, एकनि कौं बोधति दै धीर ।
सूरदास धनि स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य-सरीर ॥5॥


सोभा-सिन्धु न अन्त रही री ।
नंद-भवन भरि उमँगि चलि, ब्रज की बीथिन फिरति बही री ।
देखी जाइ आजु गोकुल मैं, घर-घर बेंचति फिरति दही री ।
कहँ लगि कहौं बनाइ बहुत विधि, कहत न मुख सहसहुँ निबही री ।
जसुमति-उदर-अगाध-उदधि तैं उपजी ऐसी सबनि कही री ।
सूरश्याम प्रभु इंद्र-नीलमनि, ब्रज-बनिता उर लाइ गही री ॥6॥