भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मेह क्या बरसा / महेश अनघ" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश अनघ |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> मेह क्या बरसा घरों क…)
 
(कोई अंतर नहीं)

21:00, 19 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

मेह क्या बरसा
घरों को लौट आए
नेह वाले दिन

हाट से लौटे कमेरे
मुश्किलों से मन बचा कर
लौट आए छंद में कवि
शब्द की भेड़ें चरा कर

मेह क्या बरसा
भले लगने लगे हैं
स्याह काले दिन

कोप घर से लौट
धरती ने हरी मेंहदी रचाई
वीतरागी पंछियों ने
गीतरागी धुन बनाई

मेह क्या बरसा
लगे मुरली बजाने
गोप ग्वाले दिन

कुरकुरे रिश्ते बने
कड़वे कसैले पान थूके
उमंगें छत पर चढ़ीं
मैदान में निकले बिजूके

मेह क्या बरसा
सभी ने हाथ में लेकर
उछाले दिन