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01:47, 20 अप्रैल 2011 का अवतरण
काहै कौं पर-घर छिनु-छिनु जाति ।
घर मैं डाँटि देति सिख जननी, नाहिं न नैंकु डराति ॥
राधा-कान्ह कान्ह राधा ब्रज, ह्वै रह्यौ अतिहि लजाति ।
अब गोकुल को जैबौ छाँड़ौ, अपजस हू न अघाति ॥
तू बृषभानु बड़े की बेटी, उनकैं जाति न पाँति ।
सूर सुता समुझावति जननी, सकुचति नहिं मुसुकाति ॥1॥
खेलन कौं मैं जाउँ नहीं ?
और लरिकिनी घर घर खैलहिं,मोहीं कौं पै कहत तुहीं ॥
उनकैं मातु पिता नहिं कोई, खेलत डोलतिं जहीं तहीं ।
तोसी महतारी बहि जाइ न, मैं रैहौं तुमहीं बिनुहीं ॥
कबहुँ मोकौं कछू लगावति , कबहूँ कहति जनि जाहु कही ।
सूरदास बातैं अनखौहीं, नाहिं न मौ पै जातिं सही ॥2॥
मनहीं मन रीझति महतारी ।
कहा भई जौ बाढ़ि तनक गई, अबहों तौ मेरी है बारी ॥
झूठें हीं यह बात उड़ी है, राधा-कान्ह कहत नर-नारी ।
रिस की बात सुता के मुख की, सुनत हँसति मनहीं मन भारी ॥
अब लौं नहीं कछू इहिं जान्यौ, खेलत देखि लगावें गारी ।
सूरदास जननी उर लावति, मुख चूमति पोंछति रिस टारी ॥3॥
सुता लए जननी समुझावति ।
संग बिटिनिअनि कैं मिलि खेलौ, स्याम-साथ सुनु-सुनि रिस पावति ।
जातें निंदा होइ आपनी,जातैं कुल कौं गारो आवति ।
सुनि लाड़लो कहति यह तोसैं, तोकों यातैं रिस करि धावति ॥
अब समुझी मैं बात सबनि की, झूठैं ही यह बात उड़ावति ।
सूरदास सूनि सुनि ये बातें, राधा मन अति हरष बढ़ावति ॥4॥
राधा बिनय करत मनहीं मन, सुनहू स्याम अंतर के जामी ।
मातु-पिता कुल-कानिहिं मानत, तुमहिं न जानत हैं जग स्वामी ॥
तुम्हरौ नाउ लेत सकुचत हैं, ऐसे ठौर रही हौं आनी ।
गुरु परिजन को कानि मानयों, बारंबार कही मुख बानी ॥
कैसे सँग रहौं बिमुखनि कैं, यह कहि-कहि नागरि पछितानी ।
सूरदास -प्रभु कौं हिरदै धरि, गृह-जन देखि-देखि मुसुकानी ॥5॥