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"क्या मालूम था?/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर

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'''क्या मालूम था?'''
 
 
क्या मालूम था  
 
क्या मालूम था  
श्रम के हाथेंा
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श्रम के हाथों
रूखी सूखी रोटी होगी  
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रूखी-सूखी रोटी होगी  
नंगे होगे पांव बदन पर  
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नंगे होंगे पाँव, बदन पर  
केवल फटी लंगोटी होगी  
+
केवल फटी लंगोटी होगी
पानी बिना सूख जायेगी
+
 +
पानी बिना सूख जाएगी
 
उनके सपनों की फुलवारी  
 
उनके सपनों की फुलवारी  
हिस्से में आयेगी केवल  
+
हिस्से में आएगी केवल  
 
चिन्ता भूख और बेकारी  
 
चिन्ता भूख और बेकारी  
 +
 
खाली होगा पेट, दिनोदिन  
 
खाली होगा पेट, दिनोदिन  
खाल पीठ की मोटी होगी  
+
खाल पीठ की मोटी होगी
वोटों के रगडे झगडे में  
+
बंट जायेंगे उनके कुनवे
+
वोटों के रगड़े-झगड़े में  
घिस जायेंगे
+
बँट जाएँगे उनके कुनबे
रोज कचेेहरी
+
घिस जाएँगे
 +
रोज़ कचहरी
 
जाकर पैरों के तलवे  
 
जाकर पैरों के तलवे  
होगा शीश पांव पर उनके  
+
 
 +
होगा शीश पाँव पर उनके  
 
जिनकी तबियत छोटी होगी  
 
जिनकी तबियत छोटी होगी  
लाठी के साये में उनको  
+
 
 +
लाठी के साए में उनको  
 
अपना जीवन जीना हेागा  
 
अपना जीवन जीना हेागा  
आंख उठाने की जुर्रत पर  
+
आँख उठाने की ज़ुर्रत पर  
घूंट दण्ड का पीना होगा  
+
घूँट दण्ड का पीना होगा  
 +
 
 
छत के नाम शीश नभ होगा  
 
छत के नाम शीश नभ होगा  
किस्मत ऐसी खोटी होगी  
+
क़िस्मत ऐसी खोटी होगी  
 
क्या मालूम था श्रम के हाथों  
 
क्या मालूम था श्रम के हाथों  
रूखी सूखी रोटी होगी।
+
रूखी-सूखी रोटी होगी ।
 
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01:50, 24 अप्रैल 2011 का अवतरण

क्या मालूम था
श्रम के हाथों
रूखी-सूखी रोटी होगी
नंगे होंगे पाँव, बदन पर
केवल फटी लंगोटी होगी
 
पानी बिना सूख जाएगी
उनके सपनों की फुलवारी
हिस्से में आएगी केवल
चिन्ता भूख और बेकारी

खाली होगा पेट, दिनोदिन
खाल पीठ की मोटी होगी
 
वोटों के रगड़े-झगड़े में
बँट जाएँगे उनके कुनबे
घिस जाएँगे
रोज़ कचहरी
जाकर पैरों के तलवे

होगा शीश पाँव पर उनके
जिनकी तबियत छोटी होगी

लाठी के साए में उनको
अपना जीवन जीना हेागा
आँख उठाने की ज़ुर्रत पर
घूँट दण्ड का पीना होगा

छत के नाम शीश नभ होगा
क़िस्मत ऐसी खोटी होगी
क्या मालूम था श्रम के हाथों
रूखी-सूखी रोटी होगी ।