भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"घसियारिनें / महेश चंद्र पुनेठा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश चंद्र पुनेठा |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ऐसे मौसम म…)
 
(कोई अंतर नहीं)

22:45, 26 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

ऐसे मौसम में
जब दूर-दूर तक भी
दिखाई न देता हो तिनका
हरी घास का ।

जब कमर में खोंसी दराती पूछती हो
मेरी धार कैसे भर सकेगी
तुम्हारी पीठ पर लदा डोका

बावजूद इसके एक आस लिए निकल पड़ती है घर से वे
इधर -उधर भटकती हैं
झाड़ी -झाड़ी तलाशती हैं
खेत और बाड़ी-बाड़ी

अनावृष्टि चाहे जितना सुखा दे जंगल
उनकी आँखों का हरापन नहीं सुखा सकती
आकाश में होगा तो वहाँ से लाएगी
पाताल में होगा तो वहाँ से
वे अंततः हरी घास लाती लौट रही हैं घर
जैसे उनके देखने भर से उग आई हो घास

उनकी पीठ पर हरियाली से भरा डोका
किसिम-किसिम की हरियाली का एक गुलदस्ता है ।