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"इज़हार / अख़्तर-उल-ईमान" के अवतरणों में अंतर
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अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अख़्तर-उल-ईमान }} {{KKCatNazm}} <poem> दबी हुई है मेरे लबों मे…) |
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21:32, 27 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
दबी हुई है मेरे लबों में कहीं पे वो आह भी जो अब तक
न शोला बन के भड़क सकी है न अश्क-ए-बेसूद<ref>निरर्थक आँसू</ref> बन के निकली
घुटी हुई है नफ़स की हद में जला दिया जो जला सकी है
न शमा बन कर पिघल सकी है न आज तक दूद<ref>धुआँ</ref> बन के निकली
दिया है बेशक मेरी नज़र को वो परतौ<ref> छवि</ref> जो दर्द बख़्शे
न मुझ पर ग़ालिब<ref>विजयी, विजयमानी</ref> ही आ सकी है न मेरा मस्जूद<ref>प्रार्थना, दुआ</ref> बन के निकली
उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज
शब्दार्थ
<references/>