भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ज़माना आ गया / बलबीर सिंह 'रंग'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
{{KKCatGhazal‎}}‎
 
{{KKCatGhazal‎}}‎
 
<poem>
 
<poem>
ज़माना आ गया रुसवाइयों तक तुम नहीं आये
+
ज़माना आ गया रुसवाइयों तक तुम नहीं आए
जवानी आ गई तनहाइयों तक तुम नहीं आये ।।   
+
जवानी आ गई तनहाइयों तक तुम नहीं आए ।।   
  
 
धरा पर थम गई आँधी, गगन में काँपती बिजली,
 
धरा पर थम गई आँधी, गगन में काँपती बिजली,
घटाएँ आ गईं अमराइयों तक तुम नहीं आये ।   
+
घटाएँ आ गईं अमराइयों तक तुम नहीं आए ।   
  
 
नदी के हाथ निर्झर की मिली पाती समंदर को,
 
नदी के हाथ निर्झर की मिली पाती समंदर को,
सतह भी आ गई गहराइयों तक तुम नहीं आये ।   
+
सतह भी आ गई गहराइयों तक तुम नहीं आए ।   
  
 
किसी को देखते ही आपका आभास होता है,
 
किसी को देखते ही आपका आभास होता है,
निगाहें आ गईं परछाइयों तक तुम नहीं आये ।   
+
निगाहें आ गईं परछाइयों तक तुम नहीं आए ।   
  
 
समापन हो गया नभ में सितारों की सभाओं का,
 
समापन हो गया नभ में सितारों की सभाओं का,
उदासी आ गई अंगड़ाइयों तक तुम नहीं आये ।   
+
उदासी आ गई अंगड़ाइयों तक तुम नहीं आए ।   
  
 
न शम्म'अ है न परवाने हैं ये क्या 'रंग' है महफ़िल,
 
न शम्म'अ है न परवाने हैं ये क्या 'रंग' है महफ़िल,
कि मातम आ गया शहनाइयों तक तुम नहीं आये
+
कि मातम आ गया शहनाइयों तक तुम नहीं आए
 
</poem>
 
</poem>

12:41, 4 मई 2011 के समय का अवतरण

ज़माना आ गया रुसवाइयों तक तुम नहीं आए ।
जवानी आ गई तनहाइयों तक तुम नहीं आए ।।

धरा पर थम गई आँधी, गगन में काँपती बिजली,
घटाएँ आ गईं अमराइयों तक तुम नहीं आए ।

नदी के हाथ निर्झर की मिली पाती समंदर को,
सतह भी आ गई गहराइयों तक तुम नहीं आए ।

किसी को देखते ही आपका आभास होता है,
निगाहें आ गईं परछाइयों तक तुम नहीं आए ।

समापन हो गया नभ में सितारों की सभाओं का,
उदासी आ गई अंगड़ाइयों तक तुम नहीं आए ।

न शम्म'अ है न परवाने हैं ये क्या 'रंग' है महफ़िल,
कि मातम आ गया शहनाइयों तक तुम नहीं आए ।