भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अचरज / गोपालशरण सिंह" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोपालशरण सिंह }} {{KKCatKavita}} <poem> मैंने कभी सोचा, वह मंज…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
22:03, 4 मई 2011 का अवतरण
मैंने कभी सोचा, वह मंजुल मयंक में है,
देखता इसी से उसे चाव से चकोर है ।
कभी यह ज्ञात हुआ वह जलधर में है,
नाचता निहार के, उसी को मंजु मोर है ।
कभी यह हुआ अनुमान वह फूल में है,
दौड़कर जाता भृंग-वृंद जिस ओर है ।
कैसा अचरज है, न मैं जान पाया कभी,
मेरे चित्त में ही छिपा मेरा चित्त-चोर है ।