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"गृहस्थी : चार आयाम / धूमिल" के अवतरणों में अंतर

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02:55, 20 नवम्बर 2007 का अवतरण


1

मेरे सामने

तुम सूर्य - नमस्कार की मुद्रा में

खड़ी हो

और मैं लज्जित-सा तुम्हें

चुप-चाप देख रहा हूँ

(औरत : आँचल है,

जैसा कि लोग कहते हैं - स्नेह है,

किन्तु मुझे लगता है-

इन दोनों से बढ़कर

औरत एक देह है)


2

मेरी भुजाओं में कसी हुई

तुम मृत्यु कामना कर रही हो

और मैं हूँ-

कि इस रात के अंधेरे में

देखना चाहता हूँ - धूप का

एक टुकड़ा तुम्हारे चेहरे पर

3

रात की प्रतीक्षा में

हमने सारा दिन गुजार दिया है

और अब जब कि रात

आ चुकी है

हम इस गहरे सन्नाटे में

बीमार बिस्तर के सिरहाने बैठकर

किसी स्वस्थ क्षण की

प्रतीक्षा कर रहे हैं

4

न मैंने

न तुमने

ये सभी बच्चे

हमारी मुलाकातों ने जने हैं

हम दोनों तो केवल

इन अबोध जन्मों के

माध्यम बने हैं