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"ढूँढ़ना-पाना / महेश वर्मा" के अवतरणों में अंतर
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देह नहीं खोज रहे थे देह में
दुख की जगहें तलाश रहे थे
एक दूसरे की
इसमें रुकावटें जो थीं
देह की नहीं थीं
एक हिचक थी पुराने किस्म की और भय था
बीच में रेत की नदियाँ थीं
जिनमें चमक आते थे तृष्णाओं के दृश्य
नेपथ्य में रोज़मर्रा की आवाज़ें थीं
अगर संगीत था तो यही था
कुछ और आवाज़ें थीं जैसे रोशनी की तीख़ी किरनें कौंधतीं
ये दुस्वप्नों की सलाख़ें थीं --
जागते नहीं थे डरकर सोते भी नहीं थे
इसी बीच में सब कुछ ढूँढ़ना था
देह को नहीं ढूँढ़ना था देह में
छुपी हुई जगहें तलाशनी थीं दुख की