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"घुलते हुए गलते हुए / केदारनाथ सिंह" के अवतरणों में अंतर
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देखता हू`म बूँदें
टप-टप गिरती हुई
भैंस की पीठ पर
भैंस मगर पानी में खड़ी संतुष्ट ।
उसके थन दूध से भारी ।
पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण
पूरी ताक़त से
थनों को खींचता हुआ अपनी ओर ।
बूढ़े दालान में बैठे
हुक्का पीते-- बारिश देखते हुए ।
हुक्के के धुँए को
बाहर निकलते
और बारिश से हाथ मिलाते हुए।
सहसा बौछारों की ओट में
दिख जाती है एक स्त्री
उपले बटोरती हुई ।
बूँदों की मार से
जल्दी-जल्दी उपलों को बचाने की कोशिश में
भीगती है वह
बचाती है उपले।
कहीं से आती है
उपलों से छनती हुई
फूल की ख़ुशबू ।
उपलों की गंध मगर फूल की गंध से
अधिक भारी
अधिक उदार
स्त्री को
बौछारों में
धीरे-धीरे घुलते हुए
गलते हुए देखता हूँ मैं।