भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जानकी -मंगल / तुलसीदास / पृष्ठ 26" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=ज…)
 
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
{{KKPageNavigation
 
{{KKPageNavigation
 
|पीछे=जानकी -मंगल/ तुलसीदास / पृष्ठ 25
 
|पीछे=जानकी -मंगल/ तुलसीदास / पृष्ठ 25
|आगे=जानकी -मंगल / तुलसीदास/ पृष्ठ 27
 
 
|सारणी=जानकी -मंगल / तुलसीदास
 
|सारणी=जानकी -मंगल / तुलसीदास
 
}}
 
}}

08:59, 16 मई 2011 के समय का अवतरण

।।श्रीहरि।।
    
( जानकी -मंगल पृष्ठ 26)

श्रीजानकी जी की स्तुति

भई प्रगट कुमारी भूमि-विदारी जन हितकारी भयहारी।
अतुलित छबि भारी मुनि-मनहारी जनकदुलारी सुकुमारी।।

सुन्दर सिंहासन तेहिं पर आसन कोटि हुताशन द्युतिकारी।
सिर छत्र बिराजै सखि संग भ्राजै निज -निज कारज करधारी।।

 सुर सिद्ध सुजाना हनै निशाना चढ़े बिमाना समुदाई।
बरषहिं बहुफूला मंगल मूला अनुकूला सिय गुन गाई।।

  देखहिं सब ठाढ़े लोचन गाढ़ें सुख बाढ़े उर अधिकाई।
अस्तुति मुनि करहीं आनन्द भरहीं पायन्ह परहीं हरषाई ।।

ऋषि नारद आये नाम सुनाये सुनि सुख पाये नृप ज्ञानी।
सीता अस नामा पूरन कामा सब सुखधामा गुन खानी।।

 सिय सन मुनिराई विनय सुनाई सतय सुहाई मृदुबानी।
 लालनि तन लीजै चरित सुकीजै यह सुख दीजै नृपरानी।।

 सुनि मुनिबर बानी सिय मुसकानी लीला ठानी सुखदाई।
सोवत जनु जागीं रोवन लागीं नृप बड़भागी उर लाई।।

 दम्पति अनुरागेउ प्रेम सुपागेउ यह सुख लायउँ मनलाई।
अस्तुति सिय केरी प्रेमलतेरी बरनि सुचेरी सिर नाई।।

 दोहा- निज इच्छा मखभूमि ते प्रगट भईं सिय आय।
चरित किये पावन परम बरधन मोद निकाय।।


(इति जानकी-मंगल)

अगला भाग >>